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सद्गुरुतच भाग २. शिक्षापाठ ११. सदगुरुतत्त्व भाग २.
पिता-पुत्र ! गुरु त्रण मकारना कहेवाय छे : १.काष्ठस्वरूप. २. कागलस्वरूप. ३. पथ्यरस्वरूप. काटस्वरूप गुरु सर्वोत्तम छ कारणसंसाररूपी समुद्रने १. काष्टखरूपी गुरु ज तरे छे, अने तारी शके छे. २. कागळस्वरूप गुरु ए मध्यम छे. ते संसारसमुद्रने पोते तरी शके नहीं; परंतु कंइ पुण्य उपाजैन करीशके. ए वीजाने तारी शके नहीं.३. पथ्थरस्वरूप ते पोते बुडे अने परने पण बुडाडे. काष्ठस्वरुप गुरु मात्र जिनेश्वर भगवानना शासनमां छे, चाकी वे प्रकारना जे गुरु रहा ते कर्मावरगनी वृद्धि करनार छे. आपणे वधा उत्तम वस्तुने चाहीए छीए; अने उत्तमयी उत्तम मळी शके छे. गुरु जो उत्तम होय तो ते भवसमुद्रमा नाविकरुप थई सद्धर्म नावमा वेसाडी पारपमाडे. तत्वज्ञानना भेद, स्वखरूपभेद, लोकालोकविचार, संसारस्वरूप ए सपळु उत्तम गुरु विना मळी शके नहीं; त्यारे तने प्रश्न करवानी इच्छा थशे के एवा गुरुनां लक्षण कयां कयां ? तेकडं छु. जिनेश्वर भगवाननी भाखली आज्ञा जाणे, तेने यथातथ्य पाळे, अने वीजाने वोधे, कंचन, कामिनीची सर्व भावी त्यागी होय, विशुद्ध आहारजळ लेता होय, वावीश भकारना परिपह सहन करता होय, शांत, दांत, निरारंभी अने जितेंद्रिय होय, सिद्धांतिक बानमां निमग्न होय, धर्म माटे थइने मात्र शरीरनो निर्वाह करता होय, निर्गयपंथ पाळतां कायर न होय, सळी मात्र पण अदच लेता न होय, सर्व प्रकारना आहार रात्रिए त्या