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१६८ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाला. शिक्षापाठ ८८. तत्वावनोध भाग ७.
उत्तरमा में कहूं के आ कालमा त्रण महाज्ञान भारतथी विच्छेद छे; तेम छतां हुं सर्वज्ञ के महाप्रज्ञावंत नथी छतां मारुं जेटलं सामान्य लक्ष पहोंचे तेटलं पहोंचाडी कंइ समाधान करी शकीश, एम मने संभव रहेछे. त्यारे तेमणे का जो तेम संभव थतो होय तो ए त्रिपदी जीवपर "ना" ने "हा" विचारे उतरो. ते एम के जीव शुं उत्पतिरुप छे ? तो के ना. जीव शुं विघ्नतारुप छे? तो के ना. जीव शुं ध्रुवतारुप छ ? तो के ना. आम एक वखत उतारो अने वीनी वखत जीव शुं उत्पत्तिरुप छ ? तो के हा.जीव शुं विघ्नतारुप छ ? तो के हा. जीव शुं ध्रुवतारुप छ ? तो के हा. आम उतारो. आ विचारो आखा मंडळे एकत्र करी योज्या छे. ए जो यथार्थ कही न शकाय तो अनेक प्रकारथी दूषण आवी शके. विघ्नरुपे होय ए वस्तु ध्रुवरुपे होय नहीं, ए पहेली शंका. जो उत्पत्ति, विघ्नता अने ध्रुवता नथी तो जीव कयां प्रमाणथी सिद्ध करशो ? ए वीजी शंका. विघ्नता अने ध्रुवताने परस्पर विरोधाभास ए त्रीजी शंका. जीव केवळ ध्रुव छे तो उत्पत्तिमा हा कही ए अस. त्य. ए चोथो विरोध. उत्पन्न जीवनो ध्रुव भाव कहो तो उत्पन्न कोणे कर्यो ए पांचमी शंका अने विरोध. अनादिपणुं जर्नु रहेछे ए छठी शंका. केवळ ध्रुव विघ्नरुपे छे एम कहो तो चार्वाकमिश्र वचन थयु ए सातमो दोप. उत्पत्ति