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ग्रंथतुं मननपूर्वक, युक्तिपूर्वक, मध्यस्थभावे अवलोकन करतां तेना निष्पक्षपातपणानी खात्री थाय एम छे. छतां उपर जणाव्युं तेम अज्ञान जन्य समज फेर थयेल छे. जे जोके कोइ रीते ग्रंथना गौरवने घटाडे एम नथी, अथवा तो तेना विषयने, के कान के भाविलाभने उपर कह्या मुजव हानि रुप नथी केमके सुवर्ण सदाकाल सुवर्ण रुपे स्थित रहेशे; कोइ एने समज फेर पीतळ कहे, गणे, ग्रह, तेथी तेना सुवर्णपणामां कांइ बाध आवे एम नथी. हानि मात्र समज फेरने लइ एना लाभथी अंतराय पामनारने छे. जे वे स्थलोए समज फेर करवामां आवेछे ते आ प्रमाणे छे. । १-सर्व मान्य धर्मना वीजा शिक्षापाठमां। "पुष्प पांखडी ज्यां दुभाय, जिनवरनी त्यां नहि आज्ञाय"
२-नमस्कारना पाठमां मधाळे पंचपरमेष्टि वांचक . पांचज पद आप्यां छे ते"पुष्प पांखडी ज्यां दुभाय छे." सर्वमान्य अहिंसाना चोध पाठमां कहेवामां आवेल छे. एमां कहेल्लु छे के सर्व जीवनी रक्षा, सर्व जीवनी मन-वाणी-कर्मे करी दया ए परमधर्म छ; अने आवी संपूर्ण दयानो कोइ दर्शन वोध करतुं होय तो ते श्री जैन दर्शन छे; तेनी दया एटली सूक्ष्म छे के फुलनी पांखडी जेवो सूक्ष्ममा सूक्ष्म जीव दुभावनो. एमां पण श्री जिनवर देवनी आज्ञा न होय. दया धर्मनी सूक्ष्मतानो ख्याल आपवा आ एक वचन कह्यु, के पुष्प वा शीणा क्षुद्र जंतुनी दया जेणे स्वीकारी छे, तेवा