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१५० श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाला. शिक्षापाठ ७७. ज्ञान संबंधी बे बोल
भाग १.
जेवडे वस्तुनु स्वरुप जाणीए ते ज्ञान. ज्ञान शद्वनो आ अर्थ छे. हवे यथामति विचारवानुं छे के ए ज्ञाननी कैइ आवश्यकता छ ? जो आवश्यकता छे तो ते प्राप्तिनां कंइ साधन छ ? जो साधन छे तो तेने अनुकुळ द्रव्य, देश, काल, भाव छ ? जो देशकाळादिक अनुकुल छे तो क्यां सुधी अनुकुळ छे? विशेष विचारमा ए ज्ञानना भेद केटला छे ? जाणवारुप छे शुं? एना वळी भेद केटला छे? जाणवानां साधन क्या क्यां छ? कयि कयि वाटे ते साधनो प्राप्त कराय छे ? ए ज्ञाननो उपयोग के परिणाम शुं छे ? ए जाणवू अवश्यतुं छे.
१. ज्ञाननी शी आवश्यकता छ ? ते विपे प्रथम विचार करीए. आ चतुर्दश रजवात्मक लोकमां, चतुर्गतिमां अनादिकाळथी सकर्मस्थितिमा आ आत्मा पर्यटन छे. मेषानुमेष पण सुखनो ज्यां भाव नथी एवां नर्कनिगोदादिक स्थानक आ आत्माए वहु बहु काळ वारंवार सेवन की छ; असह्य दुःखोने पुन:पुन अने कहो तो अनंतिवार सहन कर्यां छे. ए उतापथी निरंतर तपतो आत्मा मात्र स्वकर्म विपाकथी पर्यटन करे छे. पर्यटननुं कारण अनंत दु:खद ज्ञानावरणीयादि कर्मों छे जेवडे करीने आत्मा स्वस्वरुपने