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धर्मध्यान भाग १.
१४५ योजननी कोटानुकोटीए त्रिच्छो लोक छे; ज्यां असंख्याता द्वीप - समुद्र छे, असंख्याता ज्योतिषिय, वाणन्यंतरादिकना निवास छे. उत्पाद, व्यय अने ध्रुवतानी विचित्रता एमा लागी पडी छे, अढीद्वीपमां जघन्य तीर्थकर २०, उत्कृष्टा एकसो सितेर होय. तेओ तथा केवळी भगवान अने निर्मेय मुनिराज विचरे छे, तेओने “वंदामि, नम॑सामि, सक्कारेमि, समाणेमि, कल्लाणं, मंगळं, देवयं, चेइयं, पज्जुवासामि " एम तेमज त्यां वसतां श्रावक, श्राविकानां गुणग्राम करीए. ते त्रिछालोकथकी असंख्यात गुणो अधिक उर्द्ध लोक छे. त्यां अनेक प्रकारना देवताओना निवास छे. पछी इपत् प्राग्भारा छे. ते पछी मुक्तात्माओ विराजे छे. तेने “वंदामि, यावत् पज्जुवासामि" ते उर्द्ध लोकथी कंइक विशेष अधो लोक छे, त्यां अनंत दुःखथी भरेला नर्कावास अने भुवन पतिनां भुवनादिक छे. ए त्रण लोकat सर्व स्थानक आ आत्माएं सम्यकत्व रहितकरणीथी अनंतिवार जन्ममरण करी स्पर्शी मूक्यां छे, एम जे चिंतन करचं ते संस्थान विचय नामे धर्म ध्याननो चोथो भेद छे. ए चार भेद विचारीने सम्यक्त्व सहित श्रुत अने चारित्र धर्मनी आराधना करवी. जेथी ए अनंत जन्म मरण टळे. ए धर्मध्यानना चार भेद स्मरणमा राखवा.
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