________________
१४४ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा.
पहेली चार भेद कहुं छडं. १ आणाविजय (आज्ञाविचय.) २ आवायविजय (अपायविचय.) ३ विवागविजय (विपाकविचय.) ४ संठाणविजय ( संस्थानविचय.) १ आज्ञाविचय - आज्ञा एटले सर्वज्ञ भगवाने धर्मतत्त्व संबंधी जे जे क छे ते ते सत्य छे; एमां शंका करवा जेवुं नथी; काळनी हीनताथी, उत्तम ज्ञानना विच्छेद जवाथी, बुद्धिनी मंदताथी के एवा अन्य कोइ कारणथी मारा समजवामां ते तव आवतुं नथी. परंतु अर्हत भगवंते अंश मात्र पण माया युक्त के असत्य कां नथीज, कारण एओ निरागी, त्यागी, अने निस्पृही हता. मृषा कहेवानुं कंइ कारण एमने हतुं नहीं. तेम एओ सर्वदर्शी होवाथी अज्ञानथी पण मृषा कहे नहीं, ज्यां अज्ञानज नथी, त्यां ए संबंधी मृषा क्यांथी होय ? एवं जे चिंतन करवुं ते 'आज्ञाविचय' नामनो प्रथम भेद छे, २ अपायविचय-राग, द्वेष, काम, क्रोध ए वगेरेथीज जीवने जे दुःख उत्पन्न थाय छे तेथीज तेने भवमां भटकवुं पडे छे. तेनुं जे चितवन करतुं ते 'अपायविचय' नामे बीजो भेद छे. अपाय एटले दुःख. ३ विपाकविचय- हुं क्षणे क्षणे जे जे दुःख सहन करूं छउँ, भवाठविमां पर्यटन करूं छउँ, अज्ञानादिक पायुं छं, ते सघळु कर्मनां फळना उदय बडे छे, एम. चितवनुं ते धर्म ध्याननो श्री जो, कर्मविपाक चिंतन भेद छे. ४ संस्थानविचय-णलोकतुं स्वरुप चिंतवनुं ते. लोकस्वरुप सुप्रतिष्टितने आकारे छे; जीव अजीवे करीने संपूर्ण भरपुर छे. असंख्यात