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जितेंद्रियता.
१३१ तम छे. एना वडे सघळी इंद्रियो वश करी शकाय छे. मन जीतनुं बहु दुर्घट छे. एक समयमां असंख्याता योजन चालनार अश्व ते मन छे. एने थकावकुं बहु दुल्लभ छे. एनी गति चपळ अने न झाली शकाय तेवी छे. महा ज्ञानीओए ज्ञानरुपी लगामवडे करीने एने स्थंभित राखी सर्व जय कर्यो छे.
उत्तराध्ययन सूत्रमां नमिराज महर्षिए शक्रेंद्रमत्ये एम क के दश लाख सुभटने जीतनार कइक पड्या छे; परंतु स्वात्माने जीतनारा बहु दुल्लभ छे ; अने ते दश लाख मुभटने जीननार करतां अत्युत्तम छे.
मनज सर्वोपाधिनी जन्मदाता भूमिका छे. मनज बंध अने मोक्षनुं कारण छे. मनज सर्व संसारनी मोहिनी रुपछे. पवन थतां आत्मस्वरुपने पामनुं लेश मात्र दुल्लभ नथी.
मनवडे इंद्रियोनी लोलुपता छे. भोजन, वार्जित्र, सुगंधी, स्त्रीनुं निरीक्षण, सुंदर विलेपन ए सघळु मनज मागे छे. ए मोहिनी आडे ते धर्मने संभारवा पण देतुं नथी. संभार्या पछी सावधान थवा देतुं नधी. सावधान थया पछी पतिर्तता करवामां प्रवृत्त थाय छे. एमां नथी फावतुं त्यारे सावधानीयां कं न्यूनता पहचाडे छे. जेओ ए न्यूनता पण न पामतां अडग रहीने ते मनने जीते छे तेओ सर्वथा भिद्धिने पामे छे.