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श्री महावीरस्वामीचरित्र. (३३) विचित्र कोकिलाने जोवानुं फल एम ने के, आप हादशांगीनी प्ररुपणा कर
शो. ४ गायना समूहना दर्शनथी तो चतुर्वर्ग संघनी स्थापना रूप फल सूच२वाय . ए वली शरोवरना दर्शनथी आपनी चार निकायना देवतान सेवा करशे. ६ नूजाथी तरी शकाता समुनां दर्शन, फल तो एवं ने के, श्राप संसार समुज्ने सुखेथी तरशो. ७ सूर्यनुं दर्शन तो निर्मल एवं केवलज्ञान रूप फल आपे , वली हे जिनाधिश ! आपे पोताना आंतरमांधी विंटलाएला मानुषोतर पर्वतने जोयो तो आपना यशथी त्रण लोक विंटा जशे एम जणाय ने अने ए मेरु पर्वतना दर्शनथी आप सिंहासन नपर विराजमान था धर्मदेशना आपशो; परंतु हे विनो! आपे पुष्पनी बे मालान दीठी तेनुं फल शुं हशे? ते हुं जाणी शकतो नथी.” उत्पलनां आवां वचन साजली प्रन्नुए कह्यु. “हे नत्पल ! पुष्पनी बे माला, फल एवं सूचवाय डे के, हुं मनुष्य, देवता अने असुरोनी पर्षदामां साधु अने श्रावक ए बंने धर्मने प्रकाश करीश."
पठी प्रन्नु त्यां एक पके न्यूँ एवं प्रथम चोमासु पूर्ण करी मोरागसन्नि वेशे गया अने त्यां गामनी बहार कायोत्सर्गे रह्या. त्यां पण सिक्षार्थ व्यंतर प्रन्नुना मुखमां निवास करी लोकोने नूत, नविष्यादिक कहेवा लाग्यो. ते एटलाज हेतुथी के, लोको त्यां प्राचीने प्रनुनी स्तुति करे. पठी मनुष्यनी मध्ये महिमावंत श्रयेला वीर प्रनुने जो तेमना नपर इावंत श्रयेलो अखंदक नामनो को पाखंमी निमित्तियो त्यां आव्यो अने सर्व प्रकारना पूजनथी व्याप्त तथा अधम एवो ते हाथमां तृण लश्ने प्रनुने पूबवा लाग्यो के, "आ तृण वेदाशे के नहिं, ते झट कहो ?” आ प्रमाणे तेणे प्रश्न कस्यो एटले सिक्षार्थ देव के, जे प्रन्नुनां मुखमां अदृश्यपणे रहेलो हतो तेणे नत्तर आप्यो के, “ते तृण बेदाशे नहि." पनी अखंदक ते तृणने दवा लाग्यो एटलामां इं३ तेनी
आंगली बेदी नांखी. पठी प्रन्नुने विषे अत्यंत मत्सर धरता एवा ते अबंदकने विषे महा क्रोध पामेला सिमर्थ व्यंतरे लोकोनी पागल कह्यु के, “हे लोको!
आ चोर ,” लोकोए कडं. “हे मुनि! ए आपे शी रीते जाण्युं ?” सिक्षार्थे कहूं. “हे जनो ! एणे वीरघोष नामना पुरुषनो दशपल प्रमाणनो एक गोलाकार वाटको चोरीने खजुरीनी नीचे पश्चिमदिशामा हस्तप्रमाण जोयमां