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और अहिंसा' नामक विवादास्पद ग्रंथमें लिखा है और उसके पश्चात् वेदकालके पहले से इस देशके ऋषि मुनियोंने जो तपस्यामूलक अहिंसा-धर्म चलाया था उसकी परिणति भगवान् पार्श्वनाथके चातुर्याम धर्ममें कैसे हुई और फिर इसी चातुर्याममूलक समाजधर्मका विस्तार आजतक किस प्रकार होता रहा, सो इस 'पार्श्वनाथका चातुर्याम धर्म' नामक पुस्तकमें सप्रमाण बतलाया है । यहाँ भी उन्होंने अपने दिलकी खरी-खरी सुनाते समय इस बातकी बिलकुल परवाह नहीं की है कि उससे वाद-विवादोंकी कितनी आँधियाँ उठ खड़ी होंगी। ___ धर्मका अर्थ है जीवन-धर्म। उसमें व्यक्तिगत जीवन और सामाजिक जीवन दोनों आते हैं; और सामाजिक जीवनमेंसे आर्थिक राजनीतिक जैसे प्रधान भागोंको टाला नहीं जा सकता । धर्म-शास्त्र अगर सच्चा जीवन-धर्मशास्त्र हो तो वह राजनीति और अर्थनीतिसे दामन बचाकर नहीं चल सकता।
अतः चातुर्यामात्मक समाज-धर्मका ऊहापोह करते समय धर्मानंदजीको समाजवाद, साम्यवाद और गाँधीवादके विषयमें अपने विचार प्रकट करने पड़े हैं और वैसा करते समय कांग्रेस और मुस्लिम लीगके आपसी सम्बन्धों, कांग्रेसकी अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति आदि बातोंके बारेमें भी उन्हें लिखना पड़ा है। ___ उनकी इस आर्थिक और राजनीतिक मीमांसासे सहमत होना सभीके लिए संभव नहीं । विशेष अनुभवों के बाद अपने विचारोंमें परिवर्तन कर लेनेकी तैयारी धर्मानंदजीमें हमेशा रही है। पर इस पुस्तकके सारे विवेचनमें साधुचरित धर्मानन्दजी कोसम्बीकी जनहितकी लगन, निःस्पृहता, साम्प्रदायिक अभिनिवेशका अभाव और चरम कोटिकी सत्यनिष्ठा आदि गुण प्रधानतासे दिखाई देते हैं ।
कोई भी धर्म ले लीजिए; उसे ऐहिक दृष्टिसे मज़बूत बनानेके लिए उसके अनुयायियोंने उसकी छीछालेदर ही की है। इस विषयमें सनातनी, बौद्ध, जैन, मुसलमान, ईसाई आदि कोई भी धर्म अपवादात्मक नहीं है । यह भी नहीं कहा जा सकता कि समाजवाद, साम्यवाद और गाँधीवादके