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धूप छाँव
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स्वर्गपुरीको लौट कर देव-सभाके अध्यक्ष ने भरे देव-दरबार में विश्वकर्मासे पूछा-'मानव जातिकी चौथो भू-परिक्रमाका समय अत्यन्त निकट आ गया है । क्या आप समझते हैं कि इतने स्वल्प कालमें आपका शेष कार्य पूरा हो जायगा ?' देवाध्यक्षका अभिप्राय दूसरी सड़कके निर्माणसे था । उनके स्वरमें क्षोभ और आरोपका तीव्र पुट था।' ___निस्सन्देह !' विश्वकर्माने उत्तर दिया, 'सड़कके दोनों किनारोंपर बोये हुए विटप-बीजोंके अंकुरित और पल्लवित होनेका ही काम मेरे ऊपर शेष रह गया है-वह पहले मानव दलके प्रस्थानके बहुत पहले ही पूर्ण हो जायगा।'
देवसभाके विधानके अनुसार विश्वकर्मापर तब तक कोई प्रकट आरोप नहीं लगाया जा सकता था जब तक कि उसके कार्यकी विफलता या अपूर्णताको व्यवहार में बरत कर देख न लिया जाय । साधनकी पूर्णताके नहीं, साध्यकी पूतिके लिए ही कोई भी कार्यकर्ता उत्तरदायी माना जा सकता था।
यथास मय पुण्यात्मा और पापात्मा वर्गोके दो मानव-दलोंको जन्म देकर पृथ्वीपर भेजा गया। एक ही सड़कपर चलकर दोनोंने अपनी जीवन-यात्राएं पूरी की। सड़कके दोनों किनारोंपर छायादार वृक्ष उग आये थे।
भू-जीवनकी समाप्तिपर अपनी यात्रा पूरी कर दोनों वर्ग स्वर्गमें पहुंचे।
देवताओंकी सभामें दोनों वर्गोंके मनुष्योंने अपना-अपना अनुभव निवेदन किया। पुण्यात्मा वर्गके लोगोंने कहा
'हमारी यह यात्रा बड़ी सुखद रही । वृक्षावलियोसे गुठी सड़कपर सूर्यतापको रोकनेवाली तरुओंकी छाया और श्रम-स्वेदको सुखद-स्पर्शोसे सुखानेवाली बयारोंने हमारे यात्रा-श्रमको अत्यंत रुचिकर बनाये रक्खा।'
पापात्मा वर्गके लोगोंने कहा