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धूप-छाँव स्वर्गसे पृथ्वी तककी तीन परिक्रमाएं पूरी करते-करते मानव जातिने पाप और पुण्यको चेतनाओंका अपने भीतर स्पष्ट रूपसे विकास कर लिया। मानव जातिकी कुछ मनुष्यात्माएँ निश्चित रूपसे पाप या अशुभ कर्मको ओर तथा कुछ पुण्य या शुभ कर्मको ओर प्रवृत्त दीखने लगीं। ___ चौथी परिक्रमाके आरम्भमे देवताओंने निश्चय किया कि पृथ्वीके प्रवेश-द्वारसे लेकर निसृति-द्वार तक–मनुष्यके पृथ्वीपर जन्मसे मृत्यु तककी पार्थिव जीवन-यात्राके लिए-दो सड़कें बनायी जायँ । एक उजाड़, अति उष्ण मरुस्थलीय भू-भागमें होकर निकाली जाय और दूसरी सुखद जलवायुवाले प्रकृति-श्री-सम्पन्न भू-भागमें होकर । पहली सड़क पापात्मा मनुष्योंकी जीवन-यात्राके लिए हो और दूसरी पुण्यात्मा मनुष्योंकी। अभिप्राय यह था कि पाप करने वालोंको उनके दुष्कर्मोका कटु और पुण्य करनेवालोंको उनके सुकर्मोका मधुर फल भी यथासम्भव जीवनयात्राके साथ-साथ ही मिलता चले और इनपर उनका कोई अधिक लेन-देन आगेके लिए शेष न रहे।
देवताओंका यह निश्चय देवशिल्पी विश्वकर्माको सौंप दिया गया । दोनों सड़कोंके निर्माणका ठेका देव-कोषसे आवश्यक धन सहित उन्हें दे दिया गया) -
चौथी परिक्रमाका-पृथ्वीपर मानव जनोंके चौथी बार आवागमनकासमय जब समीप आया तो अधिकारी देवता-गण विश्वकर्माके कार्यका निरीक्षण करने मर्त्यलोकमें पहुंचे ।
। उनके आश्चर्य और क्षोभकी सीमा न रही जब उन्होंने देखा कि विश्वकर्माने पृथ्वीके प्रवेश-द्वारसे लेकर निसृति-द्वार तक केवल एक ही सड़क बनाई थी, सीधी और साधारणतया उष्ण प्रदेशोंमें होकर ।