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________________ दानका स्पर्श 'महाराजके आदेशसे उनके स्नेह-सत्कार-सहित, पत्र-पुष्प रूपमें यह धन आपको समर्पित किया जाता है'-यह था मत्रिजनों द्वारा निर्धारित संकल्प-वचन, जिसे यह दूसरा अधिकारी दानके साथ बोलता था । ___कुछ ही वर्षामें विद्या-कला वर्गके इन साधकोंके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्यमे ह्रासके लक्षण प्रकट दीखने लगे। मन्त्रियोंको चिन्ता हुई। दान-राशिकी मात्रा उन्होंने और बढ़ा दी । किन्तु धनसे अधिक समृद्ध होकर भी जनताके उस शिक्षक-वर्गका ह्रास बढ़ता ही गया। महाराजको सूचना भेजी गयी। देव-राजसे कुछ समयका अवकाश ले वे तुरन्त अपने राज-नगरको आये। परिस्थितिका अध्ययन कर उन्होंने पूर्व-नियुक्त दानाधिकारीको पुनः कोषासनपर प्रतिष्ठित कर उसे ही वह कार्य करते रहनेका आदेश दिया। मंत्रि-जनोंकी आश्चर्य-चकित जिज्ञासाका समाधान करते हुए उन्होंने कहा _ 'दानके साथ दानीका व्यक्तिगत स्पर्श भी आवश्यक है। बिना उस स्पर्शके दानकी राशि निर्जीव, अतः अपुष्टिकर है। दानके ग्राहकको किसी अन्यका नही, दान देनेवाले करका हो स्पष्ट स्नेह-सम्मान भी चाहिए, भले ही वह 'अन्य' उस दानका स्रोत और वह 'कर' केवल बीचका माध्यम हो हो। मेरे कोषकी अक्षयताका कारण मैं नहीं, मेरा मित्र कुबेर है; और कुबेरके साथ मेरी अभिन्नताको शृङ्खलामें सम्मिलित होनेका योग्यतम अधिकारी मेरा यह अहंसम्पन्न प्रतिनिधि ही है।' मेरे कथागुरुको टिप्पणी है कि महाराज सलिलघोषके इस प्रतिनिधि की अध्यक्षतामे दानकी विशेष समृद्धि कारो परम्परा भू-लोकमे विकसित होकर कुछ काल पश्चात् लुप्तप्राय हो गयी, किन्तु आजकी अभावजनक व्यावसायिक अवस्थाओंको परिमार्जित करनेके लिए उस परम्पराके पुनर्जीवनके आशाप्रद लक्षण फिर प्रकट होने लगे हैं।
SR No.010816
Book TitleMere Katha Guru ka Kahna Hai Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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