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________________ दानका स्पर्श मश्रिकाखण्डके महाराजा सलिलघोषको देव-धनपति कुबेरसे गाढ़ी मित्रता थी। उनका राज्य उस युगमें धरतीका सबसे अधिक समृद्ध राज्य था। महाराजके शौर्य-प्रतापके साथ-साथ उनकी बौद्धिक विलक्षणता भी इसके विशेष कारणोंमें गिनी जाती थी। उनके राज्यमें कोई भी तन या मनसे भूखा-नङ्गा नहीं था। विद्वान् और कलाकार अपनी सर्वोत्कृष्ट सेवाएँ प्रजा-जनसे कोई मूल्य लिये बिना उन्हें भेंट करते थे और महाराज मुक्त हस्तसे दान देकर उनका योग-क्षेम निबाहते थे। वे स्वयं कोषासन पर बैठकर प्रतिदिन यह दान-यज्ञ करते थे। एक बार देवराज इन्द्रके कार्यसे महाराज सलिलघोषको कुछ कालके लिए स्वर्गपुरीमें रहना पड़ा। राज्यसे जाते समय वे महामंत्रीको आदेश दे गये कि दैनिक दान-यज्ञका कार्य यथावत् चलता रहे। कोष-विभागके जिस अधिकारीको यह कार्य सौंपा गया उसे एक सप्ताहके भीतर ही महामन्त्रीने उस पदसे उतार दिया। महाराजके कोषासनपर बैठ कर दान देते समय वह दान-पात्रोसे संकल्प-वचनके रूपमें कहता था-'मैं यह धन अपने सम्पूर्ण स्नेह-सत्कारसहित पत्र-पुष्प रूपमें आपको समर्पित करता हूँ।' ____ इस अधिकारीका संकल्प-वचन मंत्रिजनोंकी दृष्टिमें अत्यन्त आपत्तिजनक, दम्भपूर्ण और भ्रामक था । उससे कहा गया कि वह महाराजका केवल एक नियुक्त कार्यवाहक है और उसे अपने नहीं, महाराजके नामसे ही सुपात्रोंको दान देना चाहिए । किन्तु वह अधिकारी उसपर सहमत नहीं हुआ। विवश हो महामंत्रीको दूसरा दानाधिकारी नियुक्त करना पड़ा।
SR No.010816
Book TitleMere Katha Guru ka Kahna Hai Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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