SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मेरे कथागुरुका कहना है _ 'हमारी यह यात्रा अत्यंत क्लेशकर और दुस्सह रही। सड़कके वृक्षावलियोंसे गुठी होनेपर भी तरु-पल्लवोंसे छन-छन कर हमारे सिरपर आनेवाले सूर्यके प्रचण्ड आतपने और हमारे श्रमसे उत्पन्न पसीनेके सूखनेपर लपटों-सी झुलसाने वाली लकी बयारोंने हमारी इस यात्राके श्रमको और भी दुस्साध्य और पीड़ाकर बना दिया।' ___ मेरे कथागुरुका कहना है कि उन दोनों वर्गोके वक्तव्य सुननेपर देवताओंको दूसरी सड़क बनवानेको आवश्यकता नहीं रह गयी और विश्वकर्माने इस ठेकेसे जो अधिक लाभ कमाया था उसे कुछ और पुरस्कार देकर देवताओंने द्विगुणित कर दिया । जीवनकी लगभग एक-सी ही परिस्थितियोंवाले पथपर चलते हुए पापी जन राहकी धूप-छाँवकी धूपधूपको देखते हैं और पुण्यात्माजन उसकी छाँव-छाँवको-दोनोंमें अन्तर परिस्थितिका नहीं, परिस्थितिको ग्रहण करनेवाली प्रवृत्तिका ही विशेष होता है।
SR No.010816
Book TitleMere Katha Guru ka Kahna Hai Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy