________________
पूर्ण भिक्षु तीसरा प्रहर बीत चुका था । संघके सभी भिक्षु अपनी-अपनी झोलियाँ भिक्षान्नसे भरी लेकर लौट चुके थे। केवल एक तरुण भिक्षु 'अजितकाम' अभीतक नहीं लौटा था।
नियमित प्रतीक्षाकी अवधि पूरी करके संघनायक उपगुरुके आदेशसे सभी भिक्षु भोजनशालामें आ बैठे। वे भोजनकर उठ ही रहे थे कि अजितकामने वहां प्रवेश किया। उसकी झोली रीती थी।
उपगुरुकी प्रश्नभरी दृष्टिका अजितकामने उत्तर दिया--
'भिक्ष" मैं ली थी, थोड़ी, केवल अपनी उदरपूर्ति-भरके लिए। तदनन्तर कुछ नगरजनोंके साथ धर्म-चर्चामें लग गया। बीचमे समय होनेपर मैंने वह भोजन प्रसाद पा लिया। वार्तासे निवृत्त होनेपर अब यहाँ आया हूँ।'
सभी भिक्षुओंकी कुतूहल-तिरस्कारभरी आंखें अजितकामके मुखपर जा पड़ीं। अजितकामका यह कार्य नियम विरुद्ध ही नहीं, उसकी संकुचित स्वार्थ-वृत्तिका सूचक भी था।
'तुमने संघकी मर्यादाका उल्लंघन किया है अजित, .हम तुम्हें अब अपने बीच नहीं रख सकेंगे।' उपगुरुके स्वरमें तीव्रताका पुट था।
उपगुरुके आदेशपर सभी भिक्षु प्रवचनशालामें एकत्र हुए।
'अजितकामको विदा देनेके लिए ही हम इस समय यहाँ एकत्र हुए हैं' उपगुरुका स्वर अत्यन्त कोमल और विनीत था, 'बहिष्कारकी भावनाके साथ नहीं, प्रत्युत अपनी नवोदित आन्तरिक श्रद्धा एवम् सम्मान भावना