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________________ १६० मेरे कथागुरुका कहना है और लौटते हुए एक दिन जब मैं सन्ध्याकी लम्बी छायापर दृष्टि झुकाये चुपचाप चला जा रहा था, मैंने सुना मेरे समीप पीछेसे किसी आर्त कण्ठस्वरने मुझे पुकारा । घूमकर मैने उस व्यक्तिको देखा, और देखा कि मैं ज्योतिषीके बताये प्रकारके ही एक भवन-द्वारके समीप हूँ। हो सकता है वह भवन मेरे पिछले आजमाये उन तीनमे से ही कोई एक हो, या कोई चौथा ही हो जिसे मै अपनी असावधानीमे अनदेखा छोड़ गया हूँ। ___'बहुत दिनोंसे मुझे तुम्हीं जैसे किसी व्यक्तिकी प्रतीक्षा थी।' भवनके भीतर मुझे ले जाकर समृद्धतम सत्कारोंके उपरान्त उसने मुझसे कहा'केवल इसीलिए नहीं कि तुम्हारे सुख-सत्कारमें दस-बीस सहस्र मुद्राएं व्यय करके मुझे एक आन्तरिक सन्तोष प्राप्त होगा, प्रत्युत विशेषकर इसलिए कि तुम्हारे उस अनमोल हीरेकी पूँजीको भी मुझे आवश्यकता है जो तुम्हारा सह-जन्मजात है, तुम्हारे बढ़े हुए केश-जूटमें छिपा हुआ चमक रहा है, और जिसके बिना मेरी समृद्धि मेरो अभीष्ट पराकाष्ठा तक नहीं पहुँच सकती।' __ अपने विश्राम-कक्षमे लगे बड़े दर्पणके सम्मुख मुझे खड़ा करके इस स्वजनने मुझे दिखाया मेरे केश-पुंजने एक स्थलपर गुंफित होकर सचमुच एक अत्यन्त तेजस्वी होरेका रूप धारण कर लिया था और उसकी ज्योति आच्छादनकारी केश-जालको छेदकर बाहर निकली पड़ रही थी-कैसे, कबसे, मैं नहीं कह सकता। लेकिन ठहरिए, कहीं आप व्यर्थ ही मेरे उस स्वजनके नाम और पतेठिकानेके सम्बन्धमें जिज्ञासा न करने लग जायें, इसलिए मैं इतना और स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मेरी वापसीकी यात्रा अभो केवल पिछले ही दिन प्रारम्भ हुई है और इस कथाकी जो अन्तिम बात मैंने कही है उसका पूर्व-दर्शन मुझे अभी-अभी सहिताओंको ज्योतिषसे भी ऊँचे एक अपार्थिव स्वप्न-विज्ञानके द्वारा ही प्राप्त हुआ है।
SR No.010816
Book TitleMere Katha Guru ka Kahna Hai Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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