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________________ धनीकी खोननें १५९ 'हां-हां, भाई मैं बहुत निर्धन हूँ। कुछ धन चाहता हूँ।', 'भवनके मालिकसे तो तुम्हारीं भेंट नही हो सकती। तुम लिखकर अपना प्रार्थना-पत्र दे दो। उनकी इच्छा होगी तो तुम्हे कुछ धन मिल जायेगा।' ___ मैंने प्रहरीके आदेशका पालन किया। अपने एक सहायकके हाथों प्रहरीने मेरा प्रार्थना-पत्र भवनके भीतर भेज दिया। दिनभर मै द्वारके बाहर बैठा रहा। किन्तु सन्ध्या तक जब कोई उत्तर नहीं आया तो मैं आगे बढ़ गया। कुछ दिनोंकी यात्राके बाद एक दूसरा द्वार मुझे उसी तरहका दिखायी दिया। उसके प्रहरीसे भी वैसी ही बातचीत हुई। उसीके प्रश्नोंसे सुझाव पाकर मैंने कह दिया कि हाँ, मैं इस भवनके मालिककी नौकरी करना चाहता हूँ। अबकी बार मेरी प्रार्थनाका उत्तर शीघ्र ही भीतरसे आ गया कि नौकरीकी कोई जगह वहाँ खाली नहीं है। यात्रा मैंने जारी रखी। बहुत दिन बाद एक तीसरा द्वार मुझे फिर उसी बनावटका दिखायी दिया । भिक्षा और नौकरीके प्रस्तावोंकी विफलता मैं देख चुका था। इसलिए इस भवनके प्रहरीसे मैंने स्वयं ही कहा कि मैं इस भवनके मालिकके हाथों अपने-आपको पूर्णतया बेचना चाहता हूँ। मेरे इस प्रस्तावपर प्रहरी बहुत अचकचाया और उसने स्वयं ही भीतर जाकर मेरी बात कही। प्रहरीके पीछे-पीछे एक अन्य व्यक्ति तुरन्त ही भवनद्वारपर आया । मैं समझता हूँ कि वह मालिकका अन्तरंग मन्त्री ही होगा। उसने ध्यानपूर्वक मुझे देखा और तब कहा 'आदमियोंको हम खरीद तो सकते है पर तुम्हारी आवश्यकता हमे नहीं है।' हताश मैं आगे बढ़ा। किन्तु बहुत दूरकी यात्रा करनेपर भी मुझे फिर कोई उस प्रकारका भवन-द्वार नहीं दिखायी दिया । अन्तमें उस व्यक्तिकी खोजका विचार छोड़कर मै वापस अपने घरकी ओर लौट पड़ा।
SR No.010816
Book TitleMere Katha Guru ka Kahna Hai Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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