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मेरे कथागुरुका कहना है परम विश्वस्त समाजकी चेतनामें सन्देह एवं अविश्वासका एक नया सूत्र प्रादुर्भूत हो गया है। उसका निराकरण होनेपर ही इस देवी रोषका निवारण हो सकता है।' कुलदेवताने संकेत दिया और अन्तर्धान हो गया ।
प्रधान राजपुरोहितने कुलदेवताके अभिप्रायको तुरन्त समझ लिया। उसने उस खोई हुई भेड़के स्वामीको बुलवाया और उसे तथा राजा एवं राजकीय चारकोंको साथ लेकर राजकीय पशुशालामें लुप्त धनकी खोज के लिए जा पहुंचा।
खोई हुई भेड़ राज-पशुओंके बीच पहचान ली गई।
'विश्वास एवं सद्भावको सुरक्षाके लिए परमावश्यक है कि सन्देहकर्ता के सन्देहका सम्पूर्ण निराकरण तुरन्त किया जाय । सामान्य एवं असाधु ही पर नहीं, महान् एवं साधुपर भी यह दायित्व है कि वह किसीको दृष्टिमें संदिग्ध होनेपर सन्देहके निराकरणका मुक्त अवकाश प्रस्तुत करे। राजा की भूल थी कि उसने दूसरे पशु-स्वामियोंकी शोधका अवसर तो इस व्यक्ति को दिया, किन्तु अपनी शालाके द्वार इसकी दृष्टि के लिए पूर्णतया मुक्त नहीं किये। यह तबसे अपनी भेड़को कल्पना राज-पशुओंके वर्गके बीच करता आया है और उस सुदृढ़ एवं निरन्तर कल्पना ही का यह चमत्कार है कि राज-पशुओंके बीच इसकी मृत्युंगता भेड़की सूक्ष्म आकृति मूर्त रूप लेकर स्थूलवत् यहाँ दृष्टिगोचर हो रही है।'
राजपुरोहितके इन शब्दोंके साथ ही वह भेड़ अदृश्य हो गई।
राजपुरोहितके निर्देशानुसार स्वल्प-सलिला स्रोतस्विनीके बीच एक प्रस्तरखंडसे रुका हुआ उस भेड़का शव खोज निकाला गया।
राजाने अपने पशु-धनमें-से सौ भेड़ें उस व्यक्तिको देकर अपने पूर्व अन्यायका प्रतिकार किया। अगले ही दिन इंद्रदेवने वहाँकी धरतीको जलवर्षासे प्लावित कर दिया।
इस कथाके आधारपर वेदोंकी किसी ऋचाका सर्जन हुआ या नहीं यह कोई वेद-पारंगत विद्वान् ही बता सकते है ।