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खोई भेड़
यह कथा उस युग और वर्गकी है, जिसमें विश्वास और शंकाओके सहारे जीवन चला करता था । उन दिनों । वेदोंकी ऋचाओं का निर्माण हो रहा था और भेड़ें और बकरियाँ ही राजा तथा प्रजाजनोंकी प्रमुख संपत्ति हुआ करती थीं ।
एक गृहस्थकी एक भेड़ खो गई थी । उसने राज सभामें उसकी खोज के लिए आवेदन कर दिया था । उसका अनुमान था कि वह किसी दूसरे चरवाहे के पशुदलमें मिल गई है ।
राज-पुरुषोंने इस खोई हुई भेड़की सूचना सभी पशु-चारकोंमे प्रसारित कर दी । किन्तु कोई भी उस भेड़को लेकर प्रस्तुत नहीं हुआ ।
इस व्यक्तिको साथ लेकर राज-पुरुषोंने सभी पशु-स्वामियोंके बाड़ों की शोध की, किन्तु कहीं भी वह खोई हुई भेड़ न मिली ।
राजाके निजी पशुओं ही में कहीं वह भेड़ आकर न मिल गई हो, इस सन्देहके निवारणार्थ राजाने स्वयं अपने पशु चारकोंके साथ जाकर अपने पशुओंके दलका निरीक्षण किया । अपने सभी पशुओंको वह भली भाँति पहचानता था । कोई भी अपरिचित, पराई भेड़ उसे वहाँ न मिली । राजाने न्याय दिया - वह खोई उदरमें पहुँच गई होगी या किसी बह गई होगी । प्रार्थीको संतोष करना चाहिए ।
भेड़ अवश्य ही पर्वत शिखरसे
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किसी हिंसक पशुके गिरकर स्रोतस्विनीमें
प्रार्थी व्यक्ति उदास अपने घर लौट गया । अगली वर्षा ऋतु में मेघ का एक खंड भी उस प्रदेशके आकाशपर नहीं आया । वर्षा के अभावमें पशुओंका खाद्य वनस्पति-तृण धरतीसे नहीं उगा । सूर्यातपसे पुराना तृण सूखकर निर्जीव हो गया । प्रदेशभर में त्राहि-त्राहि मच गई ।
राजपुरोहितोंने अनुष्ठानपूर्वक कुल देवताका आवाहन किया । 'प्रजाजनके प्रति राजाकी ओरसे अन्याय हुआ है । हमारे परस्पर