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मेरे कथागुरुका कहना है इन्होंने दिन-भरका आतप सहन किया था और इस आधी रातके समय भी गरमीकी उमस वायुहीन वातावरणका सहयोग पाकर उनके सोये हुए शरीरोंको पसीनेसे लथपथ करके उन्हें बेचैन कर रही थी। ___ इन सौमें-से निन्यानबे व्यक्ति धरतीपर पड़े सोये हुए थे और केवल एक अब भी जागता हुआ उनके मुखोंपर अपने हाथके पंखेकी हवा झलता हुआ उन्हे कुछ सुख पहुंचानेका प्रयत्न कर रहा था । यह व्यक्ति प्रातःकाल ही से अपनी शक्तिभर महलके द्वारपर एकत्र जन-समुदायकी जल और वायुसे सेवा करनेमें संलग्न था । ___रातके तीसरे पहर महलका द्वार एक बार और खुला और महाराज स्वयं उसमें से बाहर निकलकर आये। महाराजके साथ पीछे-पीछे आये हुए सेवकोंने सभी सोये हुए व्यक्तियोंको जगाकर भोजन, जल और शीतल वायुसे उनका सत्कार किया और तत्पश्चात् उन्हें अपने-अपने घरको बिदा करते हुए सबकी निस्वार्थ सेवामें अब तक जुटे हुए इस एक व्यक्तिका हाथ पकड़कर महाराजने उन सबके सामने कहा
'जो महलके द्वारपर सेवा करता है, केवल वही महलके भीतर भी सेवा करनेका अधिकार अपने सामर्थ्यसे अर्जित कर लेता है । इस व्यक्तिने एक दिन-रातका वेतन महलके बाहर ही रहकर उपार्जित कर लिया है और इस बारके प्रार्थियोंमें से केवल यही मेरी अभीष्ट आवश्यकताओंकी पूर्ति कर सकता है।'
मेरे कथागुरुका कहना है कि उस राजाके लिए आवश्यक सौ सेवकों की भर्तीका क्रम अब भी बराबर चल रहा है, उसकी चतुर्थाश पूर्ति भी अभी तक नहीं हो पाई है और इस कथाके प्रत्येक पाठकके लिए उस - परम सम्मानित राज-सेवामें प्रविष्ट होनेका अवसर आज भी खुला हुआ है।