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नया व्यवधान मनुष्यको स्वर्गसे धरतीपर उतरे दो युग बीत गये थे। किन्तु विधाता ने जिस अभिप्रायसे अपनी मनु-सन्ततिको पृथ्वीपर भेजा था उसकी पूर्तिके कोई लक्षण नहीं दीख रहे थे । मानव-जनकी भू-जीवन में कोई रुचि ही नहीं जगी थी। उस प्रारम्भिक कालमें मानव जातिकी ज्येष्ठा सहोदरा देवजातिपर ही यह दायित्व था कि वह मनुष्योंके पार्थिव जीवनके लिए यथेष्ट आकर्षण और सुविधाएँ पृथ्वीपर प्रस्तुत करे। किन्तु देवताओंके किये सभी उपाय विफल सिद्ध हो रहे थे।
स्वर्गलोकमें देवताओंकी सभा जुड़ी। मानव जातिके प्रतिनिधि भी उसमें उपस्थित थे। उन्होंने कहा-'भौतिक जीवनमें हमे कोई विशेषता नहीं दीख पड़ती, इसलिए पृथ्वीपर रहने में हमारी कोई रुचि नहीं है। केवल एक नई वस्तु हमें वहाँ मिलो है-दुःख नामकी । किन्तु वह भी इतनी नगण्य और दुर्बल है कि हमारी सहज सुखमयताका हाथ लगते ही उसीमें विलीन हो जाती है।' ___ बात ठीक थी । देवताओंने स्वीकार किया कि मनुष्यके लिए ऐसी वस्तु रची जानी चाहिए जो उसके हाथ लगती रहे किन्तु उसमे कभी विलीन न हो। बहुत सोच-विचारके पश्चात् देवताओंने मानव शरीरकी जिह्वामें जलका और उदरम अग्निका एक नया पुट दे दिया।
मनुष्यको रसनामें स्वाद और पेटमें क्षुधाकी दो नयी संवेदनाएँ उत्पन्न हो गयीं; और इस संयोजनाके फलस्वरूप मनुष्यको नित नूतन रुचिमयताका साधन मिल गया और पृथ्वी उसकी असंख्यमुखी संलग्नताओंसे भर गयो ।
मानव-अतीतके कुछ अन्वेषकोंका कहना है कि स्वाद और क्षुधा वास्तवमें