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नया व्यवधान
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मनुष्यकी प्रारम्भिक नहीं, बीचको ही उपलब्धियाँ थीं और इनसे चालित होकर मनुष्यने अटूट रुचिके साथ अगले युगोंमें लक्ष्यकी ओर प्रगति की। किन्तु प्रस्तुत युगमें इन वस्तुओंके सुप्राप्य होते हुए भी वह पुनः अरुचिग्रस्त एवम् अगतिशील हो रहा है। कहते हैं कि मनुष्यके इस नये व्यवधानका देवताओंके पास अब कोई उपाय नहीं है-यह मनुष्योंका स्वनिर्मित है और इसके निराकरणका दायित्व स्वयम् उन्हींपर है।