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________________ विपदाके हाथ समुद्री व्यापारियोंका एक दल अपने देशको शिल्प-सामग्रियोंसे भरी नावोंका बेड़ा लेकर व्यापारको निकला। समुद्रके पार एक बड़ा समृद्ध राज्य था, जिसमें सोनेकी खानें थी । ये व्यापारी उसी देशको अपनी कलाकृतियाँ बेचकर बदलेमे स्वर्ण-सम्पत्तियोंसे भरे हुए लौटा करते थे। इस बार आधी राह पार करनेके पहले ही ऐसी आँधी समुद्रमें आई कि सारा बेड़ा एक भिन्न दिशामे निश्चित पथसे बहुत दूर बहकर एक अपूर्व-परिचित निर्जन टापूसे जा टकराया। आँधी-पानी और पृथ्वीको ठोकरोंसे वे नावें तथा उनकी विक्रय-वस्तुएँ भी किसी सीमा तक क्षतविक्षत हो गई। किन्तु उन व्यापारियोंका साहस और बल अदम्य था । प्रतिकूल झझाका वेग कुछ कम होते ही उन्होंने डाँड सम्हालकर निश्चित पथपर लौटनेके लिए कूच बोल दिया। केवल एक व्यापारीने अपनी नाव नहीं बढ़ाई। उसने कहा 'प्रतिकूल वायुका वेग अब भी प्रबल है। ऐसी स्थितिमे उस देशमे पहुँचनेकी आशा एक दुराशा-मात्र है। हमारी विक्षत विक्रय-सामग्रीका मूल्य आधा भी नहीं रह गया है। विपत्तिके जिन हाथोंने हमे यहाँ ला फेंका है उनकी मुट्ठी में सम्भव है हमारे लिए कोई नई सम्पत्ति छिपी हो । इसे ही जाँचनेके लिए मैं इस द्वीपपर ही कुछ समय रुक ना चाहता हूँ।' दूसरे सभी व्यापारी उसको इस मूर्खता-जनित कायरताकी परस्पर चर्चा करते, प्रतिकूल वायुसे क्षुब्ध लहरोंको बलपूर्वक चीरते हुए मन्द गतिसे आगे बढ़ चले।
SR No.010816
Book TitleMere Katha Guru ka Kahna Hai Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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