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ने योगशास्त्र के श्लोकों को प्रायः अनुष्टुपछन्दों से आबद्ध करके सरल प्रांजल और सुबोध शैली में योग का वर्णन किया है । प्रारम्भ में योग का माहात्म्य, उसकी गरिमा और उसकी साधना के फल और चमत्कारों का वर्णन इतना मजीव और सरस है कि हर जिज्ञासु साधक योगसाधना के लिए आकर्षित हो कर अपने बहुमूल्य जीवन को खपा देने और तदनुरूप जुट जाने के लिए उद्यत हो सकता है। सचमुच योगशास्त्र समुद्र की तरह अर्थ-गम्भीर है, हिमाचल की तरह आत्मा की सुरक्षा के लिए राजग प्रहरी है, अध्यात्मोपनिपद है, आत्मविज्ञान का अक्षय भंडार है. आत्म-गुणरूपी धन की अलौकिक निधि-मंजूषा है; साधकजीवन के नए अध्यात्मज्ञान का विश्वकोश है। उच्चकोटि के आत्मसाक्षात्कार का मार्गदर्शक है ; इसमें आत्ममाधना की कोई विधा नहीं छोड़ी। आत्मा के साथ बंधे हुए शरीर, मन एवं इन्द्रियों को साधने की प्रक्रियाओं का सांगोपांग विवेचन है। आचार्यश्री ने भाव, भाषा और संकलना में परम्परागत शैली को अपेक्षा प्रायः स्वानुभवयुक्त शैली अपना कर अपनी कलिकालसर्वज्ञता और अद्भुत प्रतिभा का परिचय दिया है। इसके बारह प्रकाश जीवन और जगत् के महासमुद्र में उठते हुए सांसारिक विषयों के तूफानों, उत्ताल अनिष्ट तरंगों, एव भतिक-गर्जनाओं से मुमुक्ष और आत्मार्थी साधक अथवा जिज्ञासु धर्मभीरु श्रावक की जीवननया को टकराने से बचाकर यथार्थ दिशादर्शन करने वाले महाप्रकाशस्तम्भ हैं: जो उसे मोक्ष के तट तक पहुचने में सहायक होते हैं।
इस विशालकाय अन्यराज की रचना में निमित्त बने थे-चौलुक्यवंशभूषण परमाहंत श्रीकुमारपाल नरेश । राजा योगविद्या के अतीव जिज्ञासु थे। उन्होंने तत्कालीन योगविद्या पर अनेक ग्रन्थों का पारायण किया था, किन्तु उनका मनःसमाधान नहीं हुआ था। अतः आचार्यश्री ने नप कुमारपाल के अत्यन्त अनुरोध के कारण इस योगशास्त्र की रचना की। इस ग्रन्थराज का प्रतिदिन स्वाध्याय करने से राजा जनदृष्टि से योगविद्या का विशेषज्ञ हो गया था।
गुजरात को अहिंसा-प्रधान एवं धर्ममय बनाने में पूज्य आचार्यश्री का बहुत बड़ा हाय रहा । कुमारपाल गजा आपका परमभक्त था, फिर भी आपने अपनी सुख-सुविधा के लिए उमसे कोई याचना नहीं की। आपकी प्रतिभा सर्वतोमुखी थी। काव्य, छन्द, अलंकार, व्याकरण, नीति, योग, इतिहास, कोश, न्याय, स्तोत्र, भक्ति, प्रमाण आदि कोई भी विषय नहीं छोड़ा, जिस पर आपने अपनी लेखनी न चलाई हो । योगशास्त्र स्वोपज्ञवृत्ति. याश्रय काव्य, अभिधानचिन्तामणि, प्रमाणमीमांसा, अनेकार्थसंग्रह. त्रिपष्टिशलाकापुरुषचरित्र, सिद्धहमशब्दानुशासन, लिंगानुशासन, छन्दोऽनुशासन, काव्यानुशासन, महादेव स्तोत्र, अन्ययोगव्यवच्छेदिका (स्तोत्र), अयोगव्यवच्छेदिका, वीतरागस्तोत्र प्राकृतव्याकरण. हैमघातुपारायण आदि आपके रचे हुए विशालकाय ग्रन्थ हैं। इस तरह स्वपर-कल्याणसाधना के साथ-साथ आपकी साहित्य-साधना भी बेजोड़ रही है।
___ आपके गुरुदेव आचार्यश्री देवचन्द्रसूरि थे। एक बार विहार करते हुए आचार्यश्री धंधुका पधारे। उनकी अमृतवाणी सुनने के लिए पाहिनी (हेमचन्द्राचार्य को माता) भी अपने पुत्र चांगदेव (आचार्यश्री का गृहस्थावस्था का नाम) को ले कर उपाश्रय में आई हुई थी। आचार्य श्री देवचन्द्रसूरिजी ने चांगदेव की विलक्षण आकृति, लक्षण एवं चेष्टाएं देख कर भविष्य में उसके संघ के उद्धारक एवं सर्वशास्त्रपारंगत हो कर स्वपरकल्याणकारक होने का संकेत किया और उसकी माता से चांगदेव को सोंपने का विशेष अनुरोध किया। माता ने पहले तो आनाकानी की; लेकिन परम उपकार समझ कर चांगलेव को सहर्ष सौंप दिया। बाद में उसके पिता श्रीचाचिंग सेठ (मोढ़वणिक) आचार्यश्री के पास कर्णपुरी पहुंचे, आचार्यश्री के साथ बहुत तर्क-वितर्क के बाद उनसे प्रभावित हो कर चाचिंग सेठ ने