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योगशास्त्र : एक चिन्तन
जैनधर्म में मोक्षप्राप्ति के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों का होना अनिवार्य माना गया है। इन तीनों के योग-संयोग को मोक्षमार्ग या मोक्षोपाय बताया गया है। जैसा कि श्री हेमचन्द्राचार्य ने 'अभिधानचिन्तामणिकोष' में कहा है -'मोक्षोपायो योगो ज्ञानभवानपरणात्मकः' अर्थात-जान-दर्शन-चारित्रात्मक तीनों योग मोक्ष का उपाय है। वैदिकधर्म ने उन्हीं का ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग के नाम से निर्देश किया है। योगशास्त्र में इन्हीं तीनों से सम्बन्धित आद्योपान्त निरूपण है।
___ योगशास्त्र में कुल १२ प्रकाश हैं। सब श्लोक १०१२ हैं और उन पर कलिकालसर्वज्ञ पूज्य श्रीहेमचन्द्राचार्य की ही १२७५० श्लोक-परिमित स्वरचित व्याख्या है। पहले के तीनों प्रकाशों में योगविद्यामान्य यम-नियम, इन दोनों अंगों के रूप में पूर्वोक्त तीनों योगों का जैनदृष्टि से स्फुट वर्णन है। चौथे प्रकाश में आत्मा के परमात्मा से योग के लिए आत्मस्वरूप-रमण, कषायों और विषयों पर विजय, चित्तशुद्धि, इन्द्रिय-निग्रह, मनोविजय, समत्व, ध्यान, बारह अनुप्रेक्षाओं, मैत्री आदि चार भावनाओं एवं आसनों का विशद विवेचन है। पांचवें प्रकाश में प्राणायाम, मन.शुद्धि, पंचप्राणों का स्वरूप, प्राणविजय, धारणाओं, उनसे सम्बन्धित ४ मंडलों तथा प्राणवायु द्वारा ईष्ट-अनिष्ट, जीवन-मृत्यु आदि के ज्ञान एवं यंत्र, मंत्र, विद्या, लग्न, छाया, उपश्रुति आदि द्वारा कालज्ञान, नाडीशुद्धि एवं परकायप्रवेश आदि का वर्णन है। छठे प्रकाश में प्रत्याहार एवं धारणा का, सातवें प्रकाश में ध्यान के पिण्डस्थ आदि चार ध्येयों और पाथिवी आदि ५ धारणाओं का दिग्दर्शन कराया गया है। आठवें प्रकाश में पदस्थ-ध्येयानुरूप ध्यान का स्वरूप एवं विधि का संक्षिप्त वर्णन है । तदनन्तर नौवें में रूपस्थध्यान का और दशवें में रूपातीत का दिग्दर्शन है। फिर ग्यारहवें और बारहवें प्रकाश में समस्त चरणों सहित धर्मध्यान और शुक्लध्यान से ले कर निर्विकल्पक समाधि, मोक्ष तथा चित्त के प्रकारों आदि का अनुपम वर्णन है।
कहना होगा कि भारतीय योग-साधनों को हठयोग आदि की जटिल भौतिक प्रक्रियाओं से हटा कर परमपूज्य बाचार्यश्री ने उसे आत्म-चिन्तनधारा की ओर मोड़ कर सहजयोग या जीवनयोग की प्रक्रियाबों से जोड़ दिया है। पतंजलि आदि योगाचार्यों द्वारा रचित 'योगदर्शन' आदि ग्रन्थों की अपेक्षा इस योगशास्त्र में यही विशेषता है कि पतंजलि आदि ने योग को चित्तवृत्तिनिरोध से ले कर सर्वभूमिकाओं के लिए समानरूप से यम-नियमादि आठ अंग बता कर उन्हीं में परिसीमित कर दिया है। जबकि कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य ने मार्गानुसारी से ले कर गृहस्थ-श्रावक-धर्म, साधुधर्म मादि उच्च आध्यात्मिक भूमिका तक पहुंचने के लिए ज्ञान-दर्शन-चारित्रात्मक योग-साधन का सुन्दर क्रम बता कर आत्मा को परमात्मरूप बनने के लिए धर्म शुक्लध्यान, इन्द्रिय-कषाय मनोविजय, समता, द्वादश अनुप्रेक्षा, चार भावना बादि का विशद विवेचन किया है। बीच-बीच में प्रतिपाद्य विषय को रोचक दृष्टान्तों से भलीभांति समझा कर वर्णन को सहज बोधगम्य बना दिया है। महाभारतकार व्यासजी के समान आचार्यश्री