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________________ इन्द्र द्वारा भ० महावीर की स्तुति भगवन् ! आपको नमस्कार हो । सबसे प्रथम उदय हुए, अपूर्ववीर ! सूर्यस्तुति (ॐ भूर्भुवः स्वः) के सदृश वचनों से स्तुति करने योग्य, हे प्रभु आपको नमस्कार हो। सर्व-जीवों के हितकारी, सर्व अर्थ के साधक, अमरत्व को प्राप्त, उदीयमान सूर्य, ब्रह्मचर्य के धारक, संसारसमुद्र से पार उतरने वाले, कौशल्यवान, निर्विकारी, विश्वरक्षक, वऋषभनाराचसंहनन से युक्त शरीर वाले, यथार्थ वस्तुतत्त्व के दर्शक ! आपको नमस्कार हो । त्रिकालज्ञ, जिनेन्द्र, स्वयम्भु, ज्ञान, बल, वीयं तेज, शक्ति और ऐश्वर्य से सम्पन्न, प्रभो! आपको नमस्कार हो । धर्म के आदिपुरुष, परमेष्ठी, महादेव, ज्योतिस्तत्त्वस्वरूप, हे स्वामिन् ! आपको नमस्कार हो। सिद्धार्थ राजा के कुलरूपी समुद्र के लिये चन्द्रमा के समान, तीनों लोकों के स्वामी ! भगवान् श्री महावीर प्रभो ! आपको नमस्कार हो। इन्द्र ने इस प्रकार के स्तुतिपाठ से नमस्कार किया और प्रभु को ले कर वापिस उन्हें उनकी माता को सौंपा । प्रभु के माता-पिता ने अपने वंश की वृद्धि होने से उसके अनुरूप प्रभु का नाम 'वर्धमान' रखा । देवों और असुरों में भगवान् की सेवा-भक्ति करने की होड़ लग गई। अमृतवृष्टि करने वाले पीयूषवर्षी नेत्रों से पृथ्वीतल को सिंचन करते हुए, एक हजार आठ लक्षण वाले स्वाभाविक गुणों से वृद्धि को प्राप्त कर क्रमशः वय से भी भगवान् बढ़ने लगे। एक बार अद्वितीय बलशाली वर्धमान बाल्यावस्था के कारण ममवयस्क राजपुत्रों के साथ खेल खेलने गये। उस समय इन्द्र ने अवधिज्ञान से जान कर देवसभा में प्रशंसा की कि "सारे जगत में महावीर प्रभु से बढ़कर कोई वीर नहीं है ।" एक ईर्ष्यालु देवता इस बात से क्षुब्ध हो उठा और उसने वर्धमान को बिचलित करने का बीड़ा उठाया । वह सीधा वहां आ पहुंचा, जहां बालक वर्धमान अपने हमजोली लड़कों के साथ आमलकी क्रीड़ा खेल रहे थे । देव ने कपटपूर्वक सर्प का रूप बनाया और वह पेड़ मे लिपट गया। उस भयंकर सर्प को देख कर सभी राजकुमार डर कर इधर-उधर भाग गये । परन्तु वर्धमान ने हंसते-हंसते रस्सी की तरह सांप को पकड़ कर जमीन पर फेंक दिया। शर्मिदा बने हुए राजकुमार फिर खेलने आये । देव ने अब कुमार का रूप धारण किया और फिर वहां आ पहुंचा। सभी बालक वृक्ष पर चढ़ गये । वर्धमान तो पहले से ही वृक्ष की चोटी पर चढ़ गये थे। लोक के अग्रभाग (मोक्ष) पर जाने वाले के लिये वृक्ष के शिखर पर चढ़ना कौन बड़ी बात थी ! वहां पहले से बैठे हुए वर्धमान शिखर पर ऐसे शोभायमान हो रहे थे, जैसे मेरुपर्वत के शिखर पर सूर्य सुशोभित होता है । जब कि दूसरे राजकुमार डाली पर लटके हुए बन्दर के समान दिखाई देते थे। बाद में वर्धमान ने खेल में ऐसी शर्त रखी कि जो कोई जीतेगा वह हारने वाले की पीठ पर चढ़ेगा। विजित वधमान राजकुमार भी घुड़सवार की तरह राजकुमारों की पीठ पर सवार हुए । क्रमश. महापराक्रमी विजयी वर्धमान देव की पीठ पर चढ़ बैठे। वह दुष्टबुद्धि देव पर्वतों को भी मात करने वाले विकराल वैताल का रूप बना कर ऊँचा होने लगा, पाताल के सदृश मुंह बना कर सर्प के ममान जीभ दिखाने लगा। और उसके मस्तकरूपी पर्वत पर पीले और लम्बे बाल दावानल के समान प्रतीत होने लगे । उसकी अतिभयंकर दाढ़ें करवत के समान प्रतीत होने लगीं। महाघोर पर्वत की गुफा के समान उसके नासाछिद्र दिखाई देने लगे। भृकुटि चढ़ाने से भयंकर भौंहे दो नागनियों-की-सी मालूम होने लगी। इस तरह ताड़ के समान बढ़ता हुआ वह देव रुका नहीं; तब महाबली प्रभु ने उसकी पीठ पर मुक्का मार कर उसे बौना बना दिया। इस प्रकार इन्द्र के द्वारा वणित वर्तमान के धर्य का प्रत्यक्ष अनभव करके देव अपने मूल स्वरूप में प्रकट हुआ और प्रभु को नमस्कार करके अपने स्थान पर वापिस लौट गया।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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