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योगशास्त्र : प्रथम प्रकाश
एक दिन वर्धमान महाबीर के माता-पिता उन्हें विद्यारम्भ-उत्सव करके पाठशाला भेजने की तैयारी कर रहे थे । इन्द्र ने यह जान कर विचार किया—'क्या सर्वज्ञ का भी पाठशाला का विद्यार्थी बनना है ?' यों सोच कर इन्द्र स्वयं वहां ब्राह्मण के रूप में आया और वर्धमान को उपाध्याय (अध्यापक) के आसन पर बिठा कर स्वयं नमस्कार करके उसने प्रभ से शब्दशास्त्र पर कुछ कहने की प्रार्थना की। वाग्मी एवं सर्वशास्त्रज्ञ महावीर ने व्याकरणशास्त्र पर विवेचन किया। भगवान् महावीर के द्वारा इन्द्र को इस प्रकार शब्दानुशासन के कहने से उपाध्याय तथा अन्य लोगों में यह 'ऐन्द्र व्याकरण' के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
दीक्षा की उत्कंठा होने पर भी प्रभ अट्ठाइस वर्ष तक माता-पिता के आग्रह से विरक्त-से हो कर गहवाम में रहे । माता-पिता का स्वर्गवाम होने पर प्रभु ने राज-संपनि छोड़ कर मुनि-दीक्षा लेने की इच्छा प्रकट की । तब उनके बड़े भाई नन्दीवर्धन ने कहा - 'हे भाई ! माता-पिता के ताजे विरह को महन करने में मैं अकेला असमर्थ हूँ। तुम्हारे रहने से मुझे बहुत ही सहयोग मिलेगा । अतः तुम ताजे घाव पर नमक छिड़कने के-से वचन मत बोलो । यों बहुत कुछ कह कर प्रभु को दीक्षा लेने से रोका । परन्तु इस
प्रम विविध प्रकार के आभपण पहने-पहने चित्रशाला में भी कार्योत्मर्ग (ध्यान) में रहे, भाव से माधुत्व का पालन करते हुए साधु के कल्प (आचार) के ममान अचित्त आहार-पानी से प्रभु निर्वाह करते रहे । इस प्रकार विशाल आशय के धारक भगवान ने एक नग बिताया। तत्पश्चात् लोकान्तिक देवो ने आ कर प्रभु को नमस्कार करके कहा-"स्वामिन् ! अब आपका दीक्षा-ग्रहण का समय निकट आ गया है। इमलिये उसकी तैयारी करिये, नीर्थस्थापना कीजिये।"
प्रभु महावीर ने अपना दीक्षा - समय निकट जान कर एक वर्ष तक याचकों को मुक्त हस्त से दान देना प्रारम्भ किया। उन्होंने पृथ्वी को ऋणमुक्त कर गजलक्ष्मी को तिनके के समान समझ कर दूसरे वर्ष उमका त्याग किया। सभी निकाय के देवों ने प्रभु का दीक्षा महोत्सव किया । हजार देवताओं ने चन्द्रप्रभा नाम की पालकी उठाई । प्रभु उसमें बैठ कर, ज्ञातृखण्ड नामक उद्यान में पधारे। वहां सर्वसावध (मदोप) व्यापारों (प्रवत्तियों) का त्याग करके दिन के चौथे प्रहर में प्रभु ने दीक्षा अंगीकार की । उम ममय भगवान् को सभी प्राणियों ने मन के भावों को जान सकने वाला चौथा मनःपर्याय ज्ञान, उत्पन्न हुआ प्रभ वहाँ से विहार कर साया-ममय कुमारग्राम के बाहर मेरुपर्वत की तरह अडोल हो कर कायोत्सर्ग में खड़े रहे । उसी रात को अकारण ऋद्ध हो कर आत्म-शत्रुरूप ग्वाला भगवान् को उपसर्ग (भयंकर कष्ट) देने लगा। उम ममय इन्द्र ने अवधिज्ञान से प्रभु पर आने वाले उपद्रवों की वृद्धि की संभावना जान कर सोचा कि चहा जैम महापर्वत को खोदना चाहता है, वैसे ही यह दुष्कर्मी ग्वाला भी प्रभु को उपद्रव देना चाहता है । अत: कल्याणकारिणी भक्तिवश इन्द्र उमी समय प्रभु के चरणों में उपस्थित हुए । इममे उपद्रव करने वाला ग्वाला खटमल की तरह कहीं भाग गया। इन्द्र ने तीन बार प्रदक्षिणा दे कर भगवान् को मस्तक झुका कर प्रणाम किया और प्रभु से प्रार्थना-की-स्वामिन् ! आप पर बारह वर्ष तक उपसर्गों की झड़ी लगने वाली है। अतः आपके श्रीचरणों में रह कर मैं उन उपद्रवों को गेकने का प्रयास करना चाहता हूँ।' कायोमर्ग पूर्ण कर भगवान् ने इन्द्र से कहा 'इन्द्र ! अग्हिंन कभी दूसरे की सहायता की अपेक्षा नहीं रखने ।' उसके बाद चन्द्र के समान शीतललेश्या वाले, सूर्य के समान प्रखर एवं दुर्धर्ष तप-तेज वाले, हाथी के समान बलवान, मेरुपर्वत के समान अटल, पृथ्वी के ममान मब कुछ सहन करने वाले, समुद्र के समान गंभीर. मिह के समान निर्भय, मिथ्याप्टियों के लिये प्रगण्ड आग के ममान, गेंडे के मींग के समान एकाकी महान वृपम के समान बलवान, कछुए