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________________ चार अतिशयों से गर्भित महावीर स्तुति निर्मल केवलज्ञान के सामर्थ्य से लोकालोक के स्वभाव एवं प्राणिमात्र के हितों के योग के पूर्णज्ञाता होने से भगवान् अवधिज्ञानी आदि योगियों के नाथ सिद्ध होते हैं । अतः 'योगिनाथाय' विशेषण उनके ज्ञानातिशय को प्रगट करता है । भगवान् जगत् के समस्त जीवों की रक्षा के लिए अपना अमृतमय प्रवचन देते हैं, और इससे विश्व के सभी प्राणियों को अभयदान मिल जाता है; इस रूप में भगवान् का वचनातिशय प्रतीत होता है । अत: उनका चौथा तायिने ( त्राता) विशेषण भी सार्थक है। तीर्थकर महावीर के प्रवचन को सभी प्राणी अपनी-अपनी भाषा में समझ लेते है । यही कारण है कि अपने सर्वजीवस्पर्शी प्रवचन (धर्मोपदेश ) द्वारा भगवान् जगत के जीवों को जन्म, जरा, मृत्यु आदि से बचने का उपाय बता कर वस्तुतः उनकी आत्मरक्षा करते हैं । अतः वे सारे विश्व के वास्तविक त्राता, पालक और रक्षक हैं। अपने बच्चों का पालन और रक्षण तो सिंह, वाघ आदि भी करते हैं, परन्तु वह पालन मोहगभित होता है, भगवान् के द्वारा सर्वजीवों का पालन-रक्षण मोहरहित, निःस्वार्थभाव से होता है । इस प्रकार चारों अतिशयों से युक्त बता कर भगवान् महावीर की परमार्थ- स्तुति की है । अब भगवान् महावीर की योगगर्भित स्तुति करते हैं पन्नगे च सुरेन्द्र च कौशिके पादसंस्पृशि । निर्विशेषमनस्काय श्रीवीरस्वामिने नमः ॥ २ ॥ अर्थ भक्तिभाव से चरणस्पर्श करने वाले सुरेन्द्र (कौशिक) और दंश देने ( उसने ) की बुद्धि से चरणस्पर्श करने वाले कोशिकसर्प, दोनों पर समान मन (समभाव ) रखने वाले श्री महावीर स्वामी को मेरा नमस्कार हो ! व्याख्या चण्डकौशिक का पूर्वजन्म में कौशिक नाम था । उसे भ० महावीर ने बोध देने के समय कहा था - चंडकौशिक बोध प्राप्त कर, जाग्रत हो ।' इन्द्र का दूसरा नाम भी कौशिक है। कौशिक सर्प ने डसने की दृष्टि से भगवान के चरणों का स्पर्श किया था और कौशिक इन्द्र ने भक्तिभाव से प्रेरित हो कर चरणस्पर्श किया था । भगवान् का न तो चंडकौशिक सर्प के प्रति द्वेष था, और न इन्द्र के प्रति राग; दोनों के प्रति भगवान् रागद्वेषरहित एवं समभावी थे। ऐसे समभावी वीर प्रभु को मेरा नमस्कार हो । समझाते हैं भ० महावीर के समभाव को उनके जीवन की घटनाओं से विविध परिस्थितियों में महावीर की समता पवित्रात्मा महावीरदेव पूर्वजन्म में उपार्जित तीर्थंकर नामकर्म के कारण प्राणत नामक देवलोक के पुष्पोत्तर विमान से च्यवन कर सरोवर में राजहंस की तरह सिद्धार्थ राजा के यहाँ तीन ज्ञान से युक्त हो कर आये और महारानी त्रिशलादेवी की कुक्षि में उत्पन्न हुए । (२) हाथी, (३) वृषभ, उस समय उत्तम गर्भ के प्रभाव से त्रिशलादेवी ने (१) सिंह, (४) अभिषेकयुक्त लक्ष्मीदेवी, (५) पुष्पमाला, (६) चन्द्र, (७) सूर्य, (८) इन्द्रध्वजा, (६) पूर्णकुंभ, (१०) पद्मसरोवर, (११) समुद्र, (१२) देवविमान, (१३) रत्नराशि और (१४) निर्धू म अग्नि; इन १४ महास्वप्नों को क्रमशः देखा । उसके बाद उत्तम योगों से युक्त दिन को तीन जगत् में उद्योत करने वाले,
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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