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योगशास्त्र: प्रथम प्रकाश
लिए यह व्याख्या (टीका) लिख रहा हूँ।' ताकि कोई भी व्यक्ति अपनी बुद्धि से इसका मनमाना अर्थ न कर बैठे और जिज्ञासुजनों को न बहका दे। इसी आशय से प्रेरित हो कर श्री हेमचन्द्राचार्य ने अपने ग्रन्थ पर स्वयं व्याख्या लिखी है।
व्याख्या महावीर-योगशास्त्र के पहले श्लोक में जो 'महावीर' पद है, वह विशेष्य है। महावीर का अर्थ होता है--वीरों से भी बढ़कर वीर । युद्ध में हजारों सुभटो को जीत लेने वाला योद्धा वास्तव में वीर नहीं कहलाता। वीर सच्चे माने में वही कहलाता है-.. 'जो विशेषरूप से कमंशत्रुओं को नष्ट (पराजिन) करता है। अथवा कर्मों का नाश करके जो तपश्चर्या में वीर्यवान- - शक्ति और उत्साह से युक्त-हो, वही वीर कहलाता है। लक्षण अथवा निरुक्ति से वीरशन्द की यह परिभापा होती है। परन्तु भगवान वर्द्धमान तो अन्य वीरों की अपेक्षा भी अधिक वीर थे। भगवान महावीर के रूप में कैसे प्रसिद्ध हुए ? इस विषय में हम उनके जीवन की एक विशेष घटना यहाँ देते है -
इन्द्र द्वारा प्रवत्त महावीरपद जिस समय शिशु (भगवान्) महावीर का जन्ममहोत्सव मनाया जा रहा था, उस समय इन्द्र के मन मे शका पैदा हुई कि यह लघुकाय शिशु वर्द्धमान अभिगक रेममय शरीर पर डाल जाने वाले जलभार को कैसे सहन करेंगे ? शिशु वर्द्धमान ने शरीरबल से आ-मबल बढकर है, इस बात को प्रत्यक्ष समझा कर इन्द्र की पूर्वोक्त शंका को दूर करने की दृष्टि से अपने दाहिने पैर . अगठे से ममम्पवंत का ज्यों ही स्पर्श किया. त्यों ही मेरुपर्वत का शिखर और भतल कम्पायमान होने लगे. गमद्र भी भब्ध हो उठा : सारा ब्रह्माण्ड आतकित हो उठा। उसी समय इन्द्र ने अवधिज्ञान के उपयोग द्वारा यह जान लिया कि यह नो प्रभु के आत्मबल के अतिशय की अभिव्यक्ति है। इसमें इन्द्र ने प्रभावित हो कर उनी ममय भगवान् वर्द्धमान को महावीरपद से विभूपित किया।
महावीर नाम प्राप्त होने के अन्य कारण अनन्न-अनन्न जन्मों के स्निग्ध एवं गांठ के रूप में बधे हुए कर्मो को जड़मून से उखाड़ने का अपार सामर्थ्य और पूरुपार्थ करना भी महावीरपद को सार्थक करने का एक कारण है। उनके मातापिता ने उनका नाम वर्द्धमान रखा था। अन्य लोगों ने 'श्रमण' और 'देवाय, नाम से भी उन्हें सम्बोधित किया।
इस प्रकार यहाँ महावीर को नमन करने का प्रयोजन बताया गया है।
दुर्वाररागादि-वैरिवार निवारिणे, अहंते, योगिनायाय, तायिने -- ये चारो विशेषण तीर्थकर महावीर के मुप्रसिद्ध चार अतिशयों को प्रकट करते हैं। वे चार अतिशय इस प्रकार है - (१) अपायापगमानिशय, (२) पूजातिशय, (३) ज्ञानातिशय और (४) वचनातिशय । अपाय कहते हैं--विघ्न को, अन्तराय को। राग, लैप, काम, क्रोध आदि वीतरागता की साधना में अन्नराय हैं। इन अन्तरायों के रूप में रागादि-शत्रुओं को दूर करने से भगवान् में आत्मस्वरूप अपायापगमातिशय के रूप में प्रगट होता है। इस कारण भगवान् महावीर का प्रथम 'दुर्वाररागादि-वैरिवार-निवारिणे' विशेपण सार्थक है।
रागद्वेषादि शत्रुओं का क्षय कर प्रभु ने अरिहन्तपद प्राप्त किया। इसी कारण वे समस्त देवों, असुरों और मानवों के पूजनीय (अहंत्) बने । अतः द्वितीय 'अहंते' विशेपण से भगवान् का पूजातिशय परिलक्षित होता है।