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________________ १०२ योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश गुरुरब्रह्मचार्यपि । सरागोऽपि देवश्चेत्, कृपाहीनोऽपि धर्मः स्यात्, कष्टं नष्टं ह हा ! जगत् ॥ १४ ॥ अर्थ देवाधिदेव यदि सरागी हो, धर्मगुरु अब्रह्मचारी हो और दयारहित धर्म को अगर धम कहा जाय तो, बड़ा अफसोस है ! इनसे हो तो संसार की लुटिया डूबी है । व्याख्या राग, द्वेष और मोह से युक्त देव हों, प्राणातिपात आदि पांच महापापों का सेवन करने वाले अब्रह्मचारी गुरु हों, दयारहित एवं मूलगुण-उत्तरगुणरहित धर्म का ही संसार में बोलबाला हो ; इमे देख कर हमें अपार खेद होता है ! अफसोम है कि ऐसे देव, गुरु और धर्म के कारण जगत् विनाश के गर्त में चला जा रहा है। किसी ने कहा है- यदि ही रागी -द्वेषी हों; या शून्यवादी हों. मदिरा पीना मांस खाना और जीव तथाकथित धर्मगुरु ही विषयों में आसक्त हों. काम में मन हों, कान्ता में माने जाते हों तो महादुःख की बात है । क्योंकि यत्र तत्र सर्वत्र बहक जाने आश्रय ले कर पतन और विनाश के मार्ग पर बढ़े जा रहे हैं । कारण दुर्गतिगमन बढ़ जाने के आराध्य माने जाने वाले देव हिंसा करना ही धर्म हो, तथा अनुरक्त हों, फिर भी पूजनीय वाले भोले भाले लोग इनका इस प्रकार कुदेव. कुगुरु और कुधर्म का परित्याग कर सुदेव, सुगुरु और सुधर्म की प्रतीतिस्वरूप सम्यक्त्व की सुन्दर व्याख्या की गई है । किन्तु निश्चयदृष्टि से सम्यक्त्व शुभ आत्मा का शुद्ध परिणामरूप है ; जो अपने आप में अमूर्त है, जिसे हम देख नही सकते, किन्तु उस (परिणाम) के ५ चिह्नों से हम उसे ( सम्यवत्व को ) जान सकते हैं । अतः अत्र उन ५-५ चिह्नों का वर्णन करते हैं - शम-संवेग-निर्वेदाऽनुकम्पाऽऽस्तिवयलक्षणैः 1 लक्षणैः पंचभिः सम्यक् सम्यक्त्व ुपलक्ष्यते ॥ ५॥ अर्थ शम, सवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्ति वयरूप पांच लक्षणों से सम्यक्त्व को भलीभांति पहचान सकते हैं। व्याख्या अपनी आत्मा में रहा हुआ अथवा दूसरे की आत्मा में रहा हुआ संवेग, निर्वेद अनुकम्पा और आस्तिक्यरूपी पांच चिह्नों बाह्य व्यवहारों से पाँचों का स्वरूप क्रमश: इस प्रकार है परोक्ष सम्यक्त्व भी शम, जाना जा सकता है। उन - (१) शम - शम का अर्थ है - प्रथम अथवा क्रूर अनन्तानुबंधी कषायों का अनुदय ; कषायों को स्वभाव से या कषायपरिणति के कटुफल जान-देख कर उन्हें उदयावस्था में रोकना । कहा है किhi प्रकृतियों के अशुभ विपाक ( कर्मफल) जान कर आत्मा का उपशमभाव का अभ्यास हो जाने से अपराधी पर भी कभी क्रोध न करनः प्रशम है। कई आचार्य क्रोधरूप खुजली और विपयतृष्णा के उपशम को शम कहते हैं । रावाल यह होता है कि सम्यग्दर्शनप्राप्त और साधुओं की सेवा करने वाले जीव के तो क्रोधकंडू (खाज) और विषयतृष्णा हो नहीं सकती । तब फिर निरपराधी और अपराधी पर क्रोध करने
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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