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सम्यक्त्व के पांच चिह्नों पर विवेचन
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वाले समाट् श्रेणिक और श्रीकृष्णजी, जिनमें विपयतृष्णा एवं क्रोधकंडू प्रत्यक्ष परिलक्षित होने थे, अतः उनमें पूर्वोक्त लक्षण वाला शम था, यह कैसे माना जाय ? और शम नहीं था तो उनम सम्यक्त्व का अस्तित्व भी कैसे माना जाय ? इसका समाधान यों करते है ऐसी बात नहीं है कि उनने शम का अभाव था, इसलिए सम्यक्त्व नहीं था। जैसे लुहार की भट्टी में धुंए से रहित राख से ढकी हुई आग होती है । उस आग में धुआ जरा भी नहीं होता। उम सम्बन्ध में न्यायशास्त्रानुसार नियम (व्याप्ति) ऐसा है कि जहाँ जहाँ धुआ है वहाँ-वहाँ अग्नि जरूर हानी है, क्योंकि जहाँ लिंग (चिह्न) होता है, वहां लिंगी अवश्य होता है, बशर्ते कि लिंग का परीक्षा के द्वारा निश्चय कर लिया गया हो । मीलिए कहते हैं कि धुआ-चिह्न (लिंग) हो, वहाँ चिह्न वाला-अग्नि (लिंगी) अवश्य होता है । परन्तु जहाँ-जहाँ चिह्न वालः (लिंगी) हो, वहाँ वहाँ चिह्न (लिंग) का होना अनिवार्य नहीं है। जैसे कही कहीं लाल अंगारों वाली अग्नि धुंए से रहिन भी होती है; वहाँ (लिंगी में) धुएरूप लिंग (चिह्न) के होने का नियम नहीं है । लिंग-लिंगी का सम्बन्ध नियम के विपर्याम में होता है। इसी दृष्टि से श्री कृण और श्रेणिक राजा दोनों निश्चिनरूप से सम्यक्त्वी थ, लेकिन मम्यक्त्व के चिह्नरूप प्रशम कथंचित् था, कथंचित् नहीं। अनन्तानुबन्धी आदि कपायों की नीन चौकड़ी की अपेक्षा से उनका कषाय प्रशगा लेकिन संज्वलन कषाय की चौकड़ी की अपेक्षा से क्रोधादि प्रशम नहीं हुए थे। इसलिए उस अपेक्षा से उक्त दोनों महानुभावों के सम्यक्त्वी होते हुए भी उसमें संज्वलन क्रोधकडू तथा सूक्ष्म विषयतृष्णा का अस्तित्व था। कभी-कभी संज्वलनकपाय भी तीव्रता से अनन्तानुबन्धी के समान विपाक वाला होता है, यह बात भी स्पष्ट है।
(२) संवेग---संवेग का अर्थ है- मोक्ष की अभिलापा । सम्यग्दृष्टि जीव राजा और इन्द्र के वैषयिक सुख को भी दुःख मिश्रित होने के कारण दु.खरूप मानते हैं ; वे मोक्षसुख को ही एकमात्र सुख रूप मानते हैं । कहा भी है -सम्यक्त्वी मनुष्या और इन्द्र के सुख को भाव (अन्तर) से दुःख मानता है और सवेग से मोक्ष के बिना और किसी वस्तु की प्रार्थना नहीं करता ; वही संवेगवान होता है।
(३) निर्वेद-संसार से वैराग्य होना, निवद है । सम्यग्दृष्टि आत्मा दुःख और दुर्गति से गहन बन हुए जन्म-मरणरूपी कंदखाने में कर्मरूपी डंडे (दंडपाशक) से उन-उन यातनाओं को सहते हुए, उनके प्रतीकार करने से असमर्थ हाता है ; इसलिए निर्ममत्वभाव को स्वीकार करता हुआ दुःख से व्याकुल हाता है, कहा भी है--"नरक, तियंञ्च, मनुष्य और देवभव में परलोक की साधना किये बिना ममस्व के विष से रहित होकर वेगरहित निवेद (वैराग्य) पूर्वक दुःख का वेदन करता रहता है। कई आचार्यों ने सवेग और निर्वेद का अर्थ उक्त अर्थ से विपरीत किया है-संवेग यानी संसार से वैराग्य और निर्वेद यानी मोक्ष की अभिलाषा ।
(४) अनुकम्पा- दुःखी जीवों पर दया करने की इच्छा अनुकम्पा है । पक्षपातरहित हो कर दुःखी जनों के दु.ख को मिटाने की भावना हो वस्तुतः अनुकम्पा है। पक्षपातपूर्ण करुणा तो बाघ, सिंह आदि को भी अपने बच्चों पर होती है। वह अनुकम्पा द्रव्य और भाव से दो प्रकार की है। द्रव्य से अनुकम्पा कहते हैं -अपनी शक्ति के अनुसार दुःखी व्यक्ति के दुःख का प्रतीकार करके उसका दु:ख दूर करना और भाव से दुःखी के प्रति कोमल हृदय रख कर दया से परिपूर्ण होना । कहा भी है-संसारसमुद्र में दःखानभव करते हए जीवों को देख कर पक्षपातरहित हो कर अपनी शक्ति के अनसार द्रव्य से और भाव से उन्हें धर्माचरण में जोड़ना ही वस्तुतः उनके दुःखों को निर्मूल करना है।