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सधर्म और कुधर्म में अन्तर पौरुषेय-पुरुष-प्रयत्कृत होगा। अपौरुषेय बचन परस्परविरुव, आकाशकुसुम (या नभत्रसरेणु) के समान असंभव हैं तथा यह किसी प्रमाण से भी सिद्ध नहीं होता और न ही उसे अमूर्त कह कर अदृश्य कहा जा सकता है। क्योंकि शब्द तो मूर्त हैं, उन्हें मूर्त और शरीरधारी ही कह सकेगा; अशरीरी या अमूर्त नहीं। हाथ से ताली बजाने के शब्द की तरह शब्द-श्रवण को ही यदि प्रमाण मा यह कथन भी यथार्थ नहीं है। क्योंकि ताली बजाने या चुटकी बजाने आदि से शब्द की उत्पत्ति मानने पर ता उल्टा अपौरुषेय दोष आता है। एक शब्द के लिए ही जब कण्ठ, तालु आदि स्थान, करण एवं अभिघात की आवश्यकता महसूस होती है, तब उसके जैसे अन्य अनेक शब्दों को प्रगट करने के लिए भी स्थान, करण आदि की आवश्यकता पड़ेगी। और फिर व्यंग्यशब्दों में भले ही स्थान आदि नहीं दिखाई देते हों, लेकिन शब्दों को अपौरुषेय मान लेने पर उनकी प्रतिनियम व्यंजक-व्यंग्यता कैसे सम्भव होगी । किसी गृहस्थ के घर में दही और घड़े के देखने के लिए दीपक जलाया तो वह दही आदि की तरह रोटी को भी बता देता है। इसलिए पूर्वोक्त युक्ति से वचन का अपौरुषेयत्व सिद्ध नहीं होता। यदि अप्रमाणिकता की आदत के बल पर वचन को आकाशकुसुम आदि के समान अपौरुषेय मान भी लें तो भी वह प्रमाणभूत नहीं माना जायगा; क्योंकि आप्तपुरुप के मुख से निकले हुए वचन ही प्रमाणभूत माने जाते हैं ; अन्य वचन नहीं। चूकि शब्द मे गुण पैदा करना तो बोलने वाले के अधीन होता है । किसी दोषयुक्त वक्ता के शब्दों में गुणों का सक्रमण (आरोपण) कैसे हो सकता है ? ऐसे शब्दों की कोई प्रतीति नहीं होती ; जिनका कोई कहने वाला न हो अथवा किमी कहने वाले के न होने से शब्दों में भी आश्रय के बिना गुण रह नहीं सकते । तथा इन वचनों में गुण हैं या नहीं ? इसका निश्चय भी पौरुषेय वचनों से ही किया जा सकता है। वेदवचन तो किसी पुरुपकर्ता के न होने से उनमें गुण है या नहीं, ऐसी शंका नहीं होती।
इस प्रकार अपौरुषेय कथन की असंभावना बता कर विविध युक्तियों से उसके अभाव का प्रतिपादन करने के बाद अब असर्वज्ञ पुरुप के द्वारा कथित धर्म की अप्रमाणिकता बताते हैं
मिथ्यादृष्टिभिराम्नातो, हिंसाध: कलुषीकृतः। स धर्म इति वित्तोऽपि, भवभ्रमणकारणम् ॥१३॥
___ अर्थ
मिथ्यादृष्टियों द्वारा प्रतिपादित तथा हिंसा मादि दोषों से दूषित धर्म संसार में धर्म के रूप में प्रसिद्ध होने पर भी वह संसार-परिभ्रमण का कारण है।
व्याख्या रुद्र, दैत्यारि, विरंचि, कपिल, सुगत आदि विपरीत (एकान्तवाद के कारण दूषित) दृष्टि वालों से प्रतिपादित आर भोले-भाले मंदबुद्धि लोगों द्वारा स्वीकृत धर्म, चाहे दुनिया में प्रसिद्ध हो गया हो, फिर भी चतुर्गतिक संसार में जन्म-मरण का कारण होने से एक तरह से अधर्म है ही। वह क्यों और कसे ? इसके उत्तर में कहते हैं कि वह धर्म हिंसा आदि दोषों से दूषित है। और मिथ्यादृष्टिप्रणीत शास्त्र प्रायः हिसादि दोषों से दूषित हैं।
अब कुदेव, कुगुरु और कुधर्म की भर्त्सना करते हुए उनके मानने से हानि का प्रतिपादन करते हैं .