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योगशास्त्र : प्रथम प्रकाश
दाक्षिण्य, औदार्य तथा गम्भीर्य का व्यवहार करे । 'आओ पधारो' जैसे प्रिय शब्दों से स्वागत करे ; साथ ही गुणीजनों का समय-समय पर बहुमान करे, उनकी प्रशंसा करें, उन्हें प्रतिष्ठा दे; उनके कार्यों में सहायक बने, उनका पक्ष ले; इत्यादि प्रकार से गुणीजनों के अनुकूल प्रवृत्ति करे। ऐसा गुणीजनों के प्रति एवं स्वपर-कल्याणकारी आत्मधर्मरूप आत्मगुणों के प्रति पक्षपाती व्यति निश्चय ही पुण्य का बीज बो कर परलोक में गुणसमूह-सम्पत्ति प्राप्त करता है ।
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(२२) निषिद्ध वेश-काल-चर्या का त्याग - जिस देश और काल में जिस आचार का निषेध किया गया हो, उसे सद्गृहस्थ को छोड़ देना चाहिए । अगर कोई हठवश निषिद्ध देशाचार या वर्जित कालाचार को अपनाता है, तो उसे प्रायः चोर, डाकू आदि के उपद्रव का सामना करना पड़ता है ; उससे धर्म की हानि भी होती है ।
(२३) बलाबल का ज्ञाता - सद्गृहस्थ को अपनी अथवा दूसरे की द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की शक्ति जान कर तथा अपनी निर्बलता सबलता का विचार करके सभी कार्य प्रारंभ करना चाहिए । ऐसा न करने पर प्रायः परिणाम विपरीत आता है। कहा भी है-" शक्ति होने पर भी सहन करने वाला शक्ति मे उसी तरह वृद्धि करता है, जैसे शक्ति के अनुसार शरीर की पुष्टि होती है । परन्तु बलाबल का विचार किये बिना किया हुआ कार्यारंभ शरीर. धन आदि संपत्तियों का क्षय करता है ।
(२४) वृत्तस्थों और ज्ञानवृद्धों का पूजक-- अनाचार को छोड़ कर सम्यक् आचार के पालन में दृढ़ता से स्थिर रहने वालों को वृत्तस्थ कहते हैं। गृहस्थ को उनका हर तरह से आदर करना चाहिए। वस्तुत्व के निश्चयात्मक ज्ञान से जो महान् हो अथवा वृत्तस्थ के सहचारी, जो ज्ञानवृद्ध हों, उनकी पूजा करनी चाहिए। पूजा का अर्थ है - सेवा करना, दोनों हाथ जोड़ कर नमस्कार करना, आसन देना उनके आते ही खड़े हो कर आदर देना, सत्कार-सम्मान देना आदि । वृत्तस्थ और ज्ञानवृद्धों-पुरुषों की पूजा करने से अवश्य ही कल्पवृक्ष के समान उनके सदुपदेश आदि फल प्राप्त होते हैं ।
(२५) पोष्य का पोषक करना - सद्गृहस्थ का यह उत्तरदायित्व है कि परिवार में माता, पिता पत्नी, पुत्र, पुत्री आदि जो व्यक्ति उसके आश्रित हों या सम्बन्धित हों, उनका भरण-पोपण करें । उनका योगक्षेम वहन करे । इससे उन सबका सद्भाव व सहयोग प्राप्त होगा । भविष्य में वे सब उपयोगी बनेंगे ।
(२६) बीर्घदर्शी - सद्गृहस्थ को किसी भी कार्य के करने से पूर्व दूरदर्शी बन कर उस कार्य के प्रारंभ से पूर्ण होने तक के अर्थ-अनर्थ का विचार करके कार्य करना चाहिए। दूरदर्शी का अर्थ ३- हर कार्य पर दूर की सोचने वाला ।
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(२७) विशेषज्ञ - सद्गृहस्थ को विशेषज्ञ भी होना चाहिए। विशेषज्ञ वह होता है जो वस्तुअवस्तु कृत्य अकृत्य, स्व-पर आदि का अन्तर जानता हो । वस्तुतस्व का निश्चय करने वाला ही वास्तव में विशेषज्ञ कहलाता है । और अविशेषज्ञ व्यक्ति पुरुष और पशु में कोई अन्तर नहीं समझता । अथवा विशेषतः आत्मा के गुणों और दोपों को जो जानता है, वही विशेषज्ञ कहलाता है। कहा है कि "मनुष्य को प्रतिदिन अपने चरित्र का अवलोकन करना चाहिए कि मेरा आचरण पशु के समान है या सत्पुरुषों के समान है ? (२८) कृतश- सद्गृहस्थ को कृतश होना चाहिए। कृतज्ञ का अर्थ है—जो दूसरों के किए उपकार को जानता हो । कृतज्ञ मनुष्य दूसरों के उपकार को भूलता नहीं। इस प्रकार उपकारी की ओर