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________________ धर्ममार्गानुसारी के ३५ गुणों पर विवेचन से जो कल्याण का लाभ होता है, उसके बदले उसका बहुमान करना चाहिए। कृतज्ञता का बदला नही चुकाया जा सकता। कहा भी है-"कृतो नास्ति निष्कृतिः ।' कुतघ्न किए हुए उपकार को भूल जाता है। (२६) लोकवल्लम-सद्गृहस्थ का लोकप्रिय होना जरूरी है। लोकप्रिय वही हो सकता हैजो विनय, नम्रता, सेवा, सरलता सहानुभूति, दया आदि गुणों से युक्त हो। गुणों के प्रति किसे प्रीति नहीं होती ? सभी लोग गुणों से आकृष्ट होते हैं। जिनमें लोकप्रियता नहीं होती, वे जनता से घृणा, द्वेष, वर, संघर्ष या विरोध करके अपना धर्मानुष्ठान तो दूषित कर ही लेते हैं ; दूसरों को भी उकसा एवं भड़का कर व स्वार्थभावना भर कर बोधिलाभ से भ्रष्ट करने में निमित्त बनते हैं। (३०) लज्जावान- सदगृहस्थ के लिए लज्जा का गुण परमावश्यक है। लज्जावान व्यक्ति किसी भी पापकर्म को करते हुए सकोच करेगा, शर्मायेगा और प्राण चले जाएं, मगर अंगीकार किए हुए व्रत-नियमों का त्याग नही करेगा। नीतिज्ञ कहते हैं कि लज्जा अनेक गुणों की जननी है । वह अत्यन्त शुद्ध हृदय वाली आर्यमाता के समान है। अनेक गुणों की जन्मदात्री लज्जा को पा कर साधक सत्य-सिद्धान्त पर डटा रहता है। लज्जाशील सत्वशाली महापुरुष सुखसुविधाओं और प्राणों का भी परित्याग कर देते हैं, परन्तु अंगीकृत प्रतिज्ञा को कदापि नहीं छोड़ते। (३१) दयावान-दया सद्गृहस्थ का महत्वपूर्ण गुण है। दुःखी जीवों का दुःख दूर करने की अभिलाषा दया कहलाती है। कहा भी है-'व्यक्ति को जैसे अपने प्राण प्रिय हैं, वैसे ही सभी जीवों को भी अपने प्राण उतने ही प्रिय हैं। इसलिए धर्मात्मा गृहस्थ दया के अवसर कदापि न चूके ।' मनुष्य अपनी आत्मा पर संकट के समय दया चाहता है, वैसे ही समस्त प्रत्येक जीवों पर दया करे । (२) सौम्य- सद्गृहस्थ की प्रकृति और आकृति सौम्य होनी चाहिए। क्रूर आकृति और भयंकर स्वभाव वाला व्यक्ति लोगों में उद्वेग पैदा कर देता है, उसका प्रभाव क्षणिक होता है, जबकि सौम्य व्यक्ति से सभी आकृष्ट होते हैं, कोई भयभीत नही होना ; बल्कि प्रभावित हो जाता है। (३३) परोपकार करने में कर्मठ-सद्गृहस्थ को परोपकार के कार्य भी करने चाहिए। उसे केवल अपने ही स्वार्थ में रचापचा नहीं रहना चाहिए। परोपकारवीर एवं परोपकारकर्मठ मनुष्य सभी के नेत्रों में अमृतांजन के समान होता है। (३४) षट् अन्तरंग शत्रुओं के त्याग में उचत-सद्गृहस्थ सदा छह अन्तरंग शत्रुओं को मिटाने में उद्यत रहता है। शिष्ट गृहस्थों के लिए काम, क्रोध, लाभ, मान, मद और हर्ष या मत्सर ; ये ६ अंतरंग शत्रु कहे हैं । दूमरे की परिणीता अथवा अपरिणीता स्त्री के साथ सहवास की इच्छा करना काम है। अपनी अथवा पराई हानि का सोच-विचार किए बिना कोप करना क्रोध है। दान देने योग्य व्यक्ति को दान न देना तथा अकारण पराया धन ग्रहण करना लोभ है । किसी के योग्य उपदेश को दुराग्रहवश नहीं मानना मान है। बिना कारण दुःख दे कर तथा जुआ, शिकार आदि अनर्थकारी कार्यों में आनन्द मानना हर्ष कहलाता है। किसी की उन्नति देख कर कुढ़ना, उससे डाह करना, मत्सर है । ये छहों हानिकारक होने से इनका त्याग करना चाहिए। कहा है कि-(१) काम मे ब्राह्मणकन्या को बलात्कार से सताने वाला दांडक्य नाम का भोज बन्धुओं और राज्य के सहित नष्ट हुआ । तथा वैदेह कराल भी नष्ट हुआ । (२) क्रोध से ब्राह्मणों पर आक्रमण करने वाला जनमेजय और भृगुओं
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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