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________________ गृहस्थ-श्रावकधर्म के योग्य बनने के लिए ३५ नैतिक गुण ८७ है । मूलहर उसे कहते हैं जो बाप-दादों या अन्य पूर्वजों से प्राप्त धन का अनीति-पूर्ण ढंग से उपभोग करके खत्म कर देता है । कदर्य उसे कहते हैं, जो नौकरों को और खुद को परेशान करके धन को इकट्ठा कर लेता है, परन्तु उसका उचित स्थान पर व्यय नहीं करता। तादात्विक के पास अर्थ (धन) का नाश होने से और मूलहर के पास धर्म और काम का विनाश होने से दोनों का कल्याण नहीं होता र, राजकर्मचारी या चोर ले जाते हैं। वह धन उसके धर्म और काम के लिए नहीं रहता। इसलिए यहां यह प्रतिपादन किया गया है कि गृहस्थ को त्रिवर्ग के अबाधितरूप से सेवन में अन्तराय नहीं डालना चाहिए। कदाचित दैवयोग से इनमें से किसी भी पुरुषार्थ के संवन में बाधा उपस्थित होने का समय आ जाए तो उत्तरोत्तर का सेवन छोड़ कर पूर्व के पुरुषार्थ की बाधा से रक्षा करना चाहिए । जैसे काम में बाधा उपस्थित हो तो धर्म और अर्थ में बाधा की रक्षा करना चाहिए । क्योंकि धर्म और अर्थ के होने पर काम की प्राप्ति भी आसानी से हो सकती है। काम और अर्थ में बाधा आए तो धर्म की रक्षा करनी चाहिए। क्योंकि अर्थ और काम का मूल धर्म है। एक नीतिज ने कहा है-"भिक्षा मांग कर निर्वाह करने से भी अगर धर्म की रक्षा होती है, तो मैं अपने को सम्पत्तिशाली मानता हं।" वास्तव में सज्जन धर्मरूपी धन से धनाढ्य होते हैं। (१६) अतिषि आदि का सत्कार-सद्गृहस्थ को घर आए हए अतिथि का स्वागत करना आवश्यक है। अतिथि उसे कहते हैं -सतत स्वपर-कल्याण की सुन्दर प्रवृत्ति में एकाग्र होने से जिसकी कोई निश्चित तिथि न हो । नीतिकारों ने कहा है-"जिस महात्मा ने तिथि और पर्वो के उत्सव का त्याग किया है ; उसे अतिथि समझना चाहिए और शेप को अभ्यागत ।" साधु-साध्वीगण कोई एक तिथि या पर्व निश्चित न करके सदा ही समग्र लोक में प्रशंसनीय होते हैं। इसलिए वह उत्कृष्ट अतिथि है। तात्पर्य यह है जिसकी धर्म अर्थ और काम की आराधना करने की समग्र शक्ति क्षीण हो गई हो, उस अतिथि, साधु और दीनों का यथायोग्य सत्कार करना चाहिए। उत्कृष्ट अतिथिरूप साधुओं की आहारपानी आदि से उचितरूप से सत्कार-भक्ति करनी चाहिए। तिथि का पर्यायवाची शब्द दिन है । दिन और दीन दोनों शब्द 'दो अवखंडने' (क्षयार्थक) धातु से बने हैं । इसलिए दीन भी अतिथि अर्थ में गृहीत हो जाता है, एक तरफ केवल एक गुना औचित्य हो और दूसरी ओर अनेक गुना औचित्य-रहित गुणसमुद्र हो; फिर भी वह विष-समान है । अर्थात् गुणवान अतिथि साधु को भक्तिपूर्वक और दीन-दुखी एवं अनाथ-पंगुओं को अनुकंपापूर्वक देना; यही उचित रीति है। (२०) अभिनिवेश से दूर- सद्गृहस्थ को मिथ्या-आग्रह से सदा दूर रहना चाहिए । अभिनिवेश कहते हैं-मिच्या आग्रह को। मिथ्याभिनिवेशी वही व्यक्ति होता है, जो नीतिमार्ग से अनभिज्ञ होता है और दूसरों को नीचा दिखाने या पराभूत करने के लिए किसी कार्य को जिद्द पकड़ कर आरम्भ करता है । इसलिए कहा है-अहंकार नीच पुरुषों को निष्फलता दिलाता है, उसमें अनीति, दुर्गुण और कार्यारम्भ से खेद पैदा करता है । उलटे प्रवाह में तैरने का व्यसन जलचर मछलियों के समान व्यर्थ परिश्रम है। वास्तव में अभिनिवेशयुक्त व्यक्ति जिद्दी और अभिमानी होता है। वह अपने ही दुर्गुणों से दुःखी होता है । इसलिए सद्गृहस्थ को अभिनिवेश से रहित होना चाहिए। चुकि कदाग्रह से रहित भाव नीच व्यक्तियों में भी यदाकदा दिखाई देता है, किन्तु वह होता है कपटयुक्त । इसलिए यहां 'सदा' शब्द का प्रयोग किया है। (२१) गुण का पक्षपाती-सद्गृहस्थ गुणों का और उपलक्षण से गुणीजनों का पक्षपाती होना चाहिए । माशय यह है कि गुणीजन जब भी उसके संपर्क में आएँ, वह उनके साथ सौजन्य,
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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