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________________ १० 0 धर्म के दशलक्षण छहकाय के जीवों की रक्षा में उनका ध्यान परजीवों की रक्षा की ओर ही जाता है । 'मैं स्वयं भी एक जीव हूँ' इसका उन्हें ध्यान ही नहीं रहता । परजीवों की रक्षा का भाव करके सब जीवों ने पुण्यबंध तो अनेक बार किया; किन्तु परलक्ष्य से निरन्तर अपने शुद्धोपयोगरूप भावप्राग्गों का जो घात हो रहा है, उसकी ओर इनका ध्यान ही नहीं जाता। मिथ्यात्व और कषायभावों से यह जीव निरन्तर अपघात कर रहा है । इम महाहिंसा की इसे खवर ही नहीं है। हिंसा की परिभाषा में ही 'प्रमत्तयोगात्' शब्द पड़ा हैजिसका तात्पर्य ही यह है कि प्रमाद अर्थात् कषाय के योग से अपने और पगये प्राणों का व्यपरोपण हिमा है । इसे ही प्राचार्यकल्प पंडित टोडरमलजी ने 'हिंसा में प्रमाद परिणति मूल है' कहा है। जब तक प्रमाद (कपाय) परिणति है तब तक हिमा अवश्य है, चाहे परप्राग्गों का घात हो या न भी हो। इस मन्दर्भ में विशेष जानने के लिए लेखक का 'अहिंसा'२ सम्बन्धी लेख देखना चाहिए । प्रकृत में विस्तृत विवेचन मम्भव नहीं है। जब हम इन्द्रियसंयम के सम्बन्ध में विचार करते हैं तो देखते हैं कि सारा जगत इन्द्रियों का गुलाम हो रहा है। यद्यपि सभी आत्माएँ ज्ञानानंद-स्वभावी हैं तथापि वर्नमान में हमारा ज्ञान भी इन्द्रियों की कैद में है और आनन्द भी इन्द्रियाधीन हो रहा है । सुबह से शाम तक हमारे मारे कार्य इन्द्रियों के माध्यम से ही मम्पन्न होते हैं। यदि हम आनन्द लेंगे तो इन्द्रियों के माध्यम से और कुछ जानेंगे तो भी इन्द्रियों के माध्यम से ही । यह है हमारी इन्द्रियाधीनता, पगधीनता । हमारा ज्ञान भी इन्द्रियाधीन और आनन्द भी इन्द्रियाधीन । ज्ञान और प्रानन्द को इन्द्रियों की पराधीनता से मुक्त कराना बहुत जरूरी है। तदर्थ हमें इन्द्रियों को जीतना होगा, जितेन्द्रिय बनना होगा। यहाँ एक प्रश्न संभव है कि इन्द्रियों क्या हमारी शत्रु हैं जो उन्हें जीतना है ? जीता तो शत्रु को जाता है। हाँ ! हाँ !! वे हमारी शत्रु हैं, क्योंकि उन्होंने हमारी ज्ञानानंद-निधि पर अनाधिकार अधिकार कर रखा है। ' प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा । तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ७, सूत्र १३ ' तीर्थकर भगवान महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ, पृष्ठ १८५
SR No.010808
Book TitleDharm ke Dash Lakshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1983
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size13 MB
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