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उत्तमसंयम
में उसकी सम्भावना कम होनी चाहिये थी । किन्तु शास्त्रों के अनुसार संयम देवों में नहीं, मनुष्यों में है। इससे सिद्ध होता है कि संयम मात्र बाह्य प्रवृत्ति का नाम नहीं - बल्कि उस पवित्र आन्तरिक वृत्ति का नाम है जो मानवों में पाई जा सकती है; देवों में नहीं, चाहे उनकी बाह्य वृत्ति कितनी ही ठीक क्यों न हो ।
वस्तुतः संयम सम्यग्दर्शनपूर्वक आत्मा के श्राश्रय से उत्पन्न हुई उस परम पवित्र वीतराग परिणति का नाम है - जो कि छठे - सातवें गुणस्थान में झूलने वाले गा उससे आगे बढ़े हुए मुनिराजों के अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषाय के प्रभाव में प्राप्त होती है; तथा जो पंचमगुरणस्थानवर्ती मनुष्य और तिर्यंचों में भी अनन्तानुबंधी व अप्रत्याख्यान कषाय के अभाव में पाई जाती है; तथा अनन्तानुबंधी आदि कषायों के सद्भाव में ग्रैवेयक तक के मिथ्यादृष्टि ग्रहमिन्द्रों एवं अप्रत्याख्यानावरणादि कषायों के सद्भाव में सर्वार्थसिद्धि के अहमिन्द्रों में नहीं पाई जाती है ।
सम्यग्दर्शनपूर्वक आत्मा के श्राश्रय से उत्पन्न हुई अनन्तानुबंधी आदि तीन या दो कषायों के प्रभाव में प्रकट वीतराग परिणतिरूप उत्तमसंयम जब अन्तर में प्रकट होता है तब उस जीव की बाह्य परिणति भी पंचेन्द्रियों के विषयों एवं हिंसादि पापों के सर्वदेश या एकदेश त्यागरूप नियम से होती है; उसे व्यवहार से उत्तमसंयमधर्म कहते हैं । अंतरंग में उक्त वीतराग परिणति के अभाव में - चाहे जैसा बाह्य त्याग दिखाई दे; वह व्यवहार से भी उत्तमसंयमधर्म नहीं है ।
अंतरंग से बहिरंग की व्याप्ति तो नियम से होती है, पर बहिरंग के साथ अंतरंग की व्याप्ति का कोई नियम नही है । तात्पर्य यह है कि जिसके अंतरंग अर्थात् निश्चय उत्तमसंयमधर्म प्रकट होता है, उसका बाह्य व्यवहार भी नियमरूप से तदनुकूल होगा । किन्तु यदि बाह्य व्यवहार ठीक भी दिखाई दे तो भी कोई गारन्टी नहीं कि उसका अंतरंग भी पवित्र होगा ही ।
उत्तमसंयमधर्म में छहकाय के जीवों की रक्षा एवं पंचेन्द्रिय और मन को वश में करने की बात कही गई है :
'काय छहों प्रतिपाल, पंचेन्द्रिय मन वश करो ।'
किन्तु सामान्यजन इसका भी सही भाव नहीं समझ पाते ।