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उत्तमसत्य
सत्यधर्म की चर्चा जब भी चलती है, तब-तब प्रायः सत्यवचन को ही सत्यधर्म समझ लिया जाता है। सत्यधर्म के नाम पर सत्यवचन के ही गीत गाये जाने लगते हैं।
कहा जाता है कि सत्य बोलना चाहिए, भूठ कभी नहीं बोलना चाहिए; झूठे का कोई विश्वास नहीं करता। दुकानदारी में भी जिसकी एक बार सत्यता की धाक जम गई सो जम गई, फिर चाहे दुगने पैसे भी क्यों न लें, कोई नहीं पूछता।
जरा विचार तो करो कि यह सत्यवचन बोलनेका उपदेश है या सत्य की प्रोट में लटने का । मेरे कहने का प्रयोजन यह है कि हम मत्यवचन का भी सही प्रयोजन नहीं समझते हैं तो फिर सत्यधर्म की वात तो बहुत दूर है।
मामान्यजन तो सत्यवचन को सत्यधर्म समझते ही हैं; किन्तु आश्चर्य तो तब होता है कि जब मत्यधर्म पर वर्षों से व्याख्यान करने वाले विद्वज्जन भी सत्यवचन से आगे नहीं बढ़ते हैं ।
यद्यपि सत्यवचन को भी जिनागम में व्यवहार से सत्यधर्म कह दिया गया है और उस पर विस्तृत प्रकाश भी डाला है, उसका भी अपना महत्त्व है, उपयोगिता है; तथापि जब गहराई में जाकर निश्चय से विचार करते हैं तो सत्यवचन और सत्यधर्म में महान अन्तर दिखाई देता है । सत्यधर्म और सत्यवचन बिल्कुल भिन्न-भिन्न दो चीजें प्रतीत होती हैं।
ध्यान रहे यहाँ पर जिनागम में वरिणत उत्तमक्षमा, उत्तममार्दव, उत्तमप्रार्जव, उत्तमशौच, उत्तमसत्य प्रादि दशधों में जो उत्तमसत्यधर्म कहा गया है - उसकी चर्चा अपेक्षित है। यहां सत्यधर्म का समस्त विश्लेषण उक्त प्रसंग में ही किया जा रहा है।
गांधीजी ने भी सत्य को वचन की सीमा से ऊपर स्वीकार किया है। वे सत्य को ईश्वर के रूप में देखते हैं (Truth is God) ।
जहाँ सत्य की खोज, सत्य की उपासना की बात चलती है, वहीं निश्चितरूप से सत्यवचन की खोज अपेक्षित नहीं होती वरन् कोई