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७२ धर्म के दशलक्षरण
तत्त्व को नहीं । आत्मा जीव है, शरीर अजीव है - दोनों ही अपवित्र नहीं; अपवित्र तो ग्रास्रव है, जो लोभादि कपायोंरूप है ।
स्वभाव की शुचिता में ऐसी मामर्थ्य है कि उस पर जो पर्याय भुके, उसको जो पर्याय छुए, वह उसे पवित्र बना देती है । पवित्र कहते ही उसे हैं जिसको छूने से छूने वाला पवित्र हो जाय । वह कैसा पवित्र, जो दूसरों के छूने से अपवित्र हो जाय ? पारस तो उसे कहते हैं, जिसके छूने पर लोहा सोना हो जाय । जिसके छूने से सोना लोहा हो जावे, वह थोड़े ही पारस कहा जायगा । इसीप्रकार जो अपवित्र पर्याय के छूने से अपवित्र हो जाय वह स्वभाव कैसा ? स्वभाव तो उसका नाम है जिसके आश्रय से पर्याय भी पवित्र हो जावे ।
पवित्र स्वभाव को छूकर जो पर्याय स्वयं पवित्र हो जाय, उस पर्याय का नाम ही शौचधर्म है ।
आत्मस्वभाव के स्पर्श बिना अर्थात् आत्मा के अनुभव बिना शौचधर्म का आरम्भ भी नहीं होता । शौचधर्म का ही क्या, सभी धर्मों का प्रारम्भ प्रात्मानुभूति से ही होता है । ग्रात्मानुभूति उत्तम क्षमादि सभी धर्मों की जननी है ।
अतः जिन्हें पर्याय में पवित्रता प्रकट करनी हो अर्थात् जिन्हें शौचधर्म प्राप्त करना हो, वे आत्मानुभूति प्राप्त करने का यत्न करें आत्मोन्मुख हों ।
सभी प्रात्माएँ प्रात्मोन्मुख होकर अपनी पर्याय में परमपवित्र शौचधर्म को प्राप्त करें, इस पवित्र भावना के साथ विराम लेता हूँ ।