________________
७४ 0 धर्म के दशलक्षण ऐसा महत्त्वपूर्ण अव्यक्त मत्य अपेक्षित होता है जो उपास्य हो, प्राश्रय के योग्य हो। दार्शनिकों और आध्यात्मिकों का उपास्य, पाश्रयदाता सत्य मात्रवचनरूप नहीं हो सकता। जिसके ग्राश्रय से धर्म प्रकट हो, जो अनन्त सुख-शान्ति का प्राथय बन सके; ऐसा सत्य कोई महान चेतनतत्त्व ही हो सकता है, उसे वाग्विलाम तक सीमित नहीं किया जा सकता। उसे वचनों तक मीमित करना स्वयं ही सबसे बड़ा असत्य है।
प्राचार्यों ने वागी की मत्यता और वाणी के संयम पर भी विचार किया है, पर उसे सत्यधर्म से अलग ही रखा है। वाणी की सत्यता और वाणी के संयम को जीवन में उतारने के लिए उन्होंने उसे चार स्थानों पर बांधा है -(१) सत्याणुव्रत, (२) सत्यमहाव्रत, (३) भाषासमिति और (४) वचनगुप्ति ।
मुख्यरूप से स्थूल झूठ नहीं बोलना सत्याणुव्रत है। मूक्ष्म भी झूठ नहीं बोलना, मदा सत्य ही बोलना सत्यमहावत है। सत्य भी कठोर, अप्रिय, अमीमित न बोलकर; हित-मित एवं प्रियवचन बोलना भाषासमिति है; और बोलना ही नहीं, वचनगुप्ति है।
- इसप्रकार हम देखते हैं कि जिनागम में वचन को सत्य एवं संयमित रखने के लिए उसे चार स्थानों पर प्रतिबंधित किया है। तात्पर्य यह है कि यदि बिना बोले चल जावे तो बोलो ही मत, न चले तो हित-मित-प्रिय वचन बोलो और वह भी पूर्णतः सत्य, यदि सूक्ष्म असत्य से न बच सको नो स्थूल असत्य तो कभी न बोलो।
यहाँ वचन को अस्ति (पॉजिटिव) और नास्ति (निगेटिव) दोनों ओर से पकड़ लिया है। सत्याणव्रत, सत्यमहाव्रत और भाषासमिति में क्या बोलें और कैसे बोलें के रूपमें अस्ति (पॉज़िटिव) को तथा वचनगुप्ति में बोल ही नहीं (मौन) के रूप में नास्ति (निगेटिन) को ले लिया है। इस तरह यहाँ बोलना और नहीं बोलना वागी के दोनों ही पहलुओं को ले लिया गया है।
_वाणी को इतना संयमित कर देने के बाद अब क्या शेप रह जाता है कि जिस कारण सत्यधर्म को भी पाप भाषा की सीमा में बांधना चाहते हैं ?
सत्यधर्म को वचन तक सीमित कर देने से एक बड़ा नुकसान यह हमा कि उसकी खोज ही सो गई : जिसकी खोज जारी हो