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उत्तमशौच ६१
आचार्य अमृतचंद्र ने भी 'तत्त्वार्थसार' में चार प्रकार के लोभ की चर्चा की है । वे उसमें लिखते हैं :
परिभोगोपभोगत्वं जीवितेन्द्रियभेदतः ।
चतुर्विधस्य लोभस्य निवृत्तिः शौचमुच्यते ॥ १७॥ भोग, उपभोग, जीवन एवं इन्द्रियों के विषयों का इसप्रकार लोभ चार प्रकार का होता है । इन चारों प्रकार के लोभ के त्याग का नाम शौचधर्म है ।
उक्त दोनों प्रकारों में मात्र इतना ही अन्तर है कि कलंकदेव ने उपभोग में भोग और उपभोग दोनो सम्मिलित कर लिये हैं तथा आरोग्य का लोभ अलग से भेद कर लिया है ।
लोभ के उक्त प्रकारों में रुपये-पैसे का लोभ कहीं भी नहीं प्राता है ।
लोभ के उक्त प्रकारों पर ध्यान दे तो पंचेन्द्रियों के विषयों के लोभ की ही प्रमुखता दिखाई देती है । भोग और उपभोग इन्द्रियों के विषय ही तो हैं। शारीरिक आरोग्य भी इन्द्रियों की विषय- ग्रहरण शक्ति से ही सम्बन्धित है, क्योंकि पाँच इन्द्रियों के अतिरिक्त और शरीर क्या है ? इन्द्रियों के समुदाय का नाम ही तो शरीर है । जीवन का लोभ भी शरीर के संयोग बने रहने की लालसा के अतिरिक्त क्या है ? इसप्रकार हम देखते है कि पंचेन्द्रिय के विषयों में उक्त सभी प्रकार समा जाते हैं ।
पंचेन्द्रियों के विषयों के लोभ में फंसे जीवों की दुर्दशा का चित्रण करते हुए तथा लोभ के त्याग की प्रेरणा देते हुए इसप्रकार लिखते हैं:
परमात्मप्रकाशकार
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रूवि पयंगा सद्दि मय गय फार्महि ग्गासति । अनिल गंधइँ मच्छ रसि किम प्रणुराउ करंनि ।।२।। ११२ ।। जोइय लोहु परिच्चयहि लोहु गग भल्लउ होड ।
लोहामत्तउ सयलु जगु दुक्म्वु सहतउ जोइ ।।२।। ११३ ॥
रूप के लोभी पतंगे दीपक पर पड़कर, कर्णप्रिय शब्द के लोभी हिरण शिकारी के वारण में विंधकर, स्पर्श (काम) के लोभी हाथी हथिनी के लोभ से गड्ढे में पड़कर, गंध के लोभी भौंरे कमल में बंधकर, और रस के लोभी मच्छ धीवर के काँटे में बिंधकर या जाल में फँसकर दुःख उठाते हैं, नाश को प्राप्त होते हैं । हे जीव ! ऐसे विषयों का क्यों लोभ करते हो, उनसे अनुराग क्यों करते हो ?