________________
६२ 0 धर्म के
लक्षण
हे योगी! तू लोभ को छोड़। यह लोभ किसी प्रकार अच्छा नहीं । क्योंकि सम्पूर्ण जगत इसमें फंसा हुआ दुःख उठा रहा है ।
आत्मस्वभाव को आच्छन्न करने वाली शौचधर्म की विरोधी लोभकषाय जब अपनी तीव्रता में होती है तो अन्य कपायों को भी दबा देती है । लोभी व्यक्ति मानापमान का विचार नहीं करता। वह क्रोध को भी पी जाता है।
लोभ दूसरी कषायों को तो काटता ही है, स्वयं को भी काटता है । यश का लोभी धन का लोभ छोड़ देता है ।
हिन्दी के प्रसिद्ध विद्वान् प्राचार्य रामचन्द्र शुक्ल लोभियों की वृत्ति पर व्यंग करते हुए लिखते हैं :
"लोभियों का दमन योगियों के दमन से किसी प्रकार कम नहीं होता। लोभ के बल से वे काम और क्रोध को जीतते हैं, मुख की वामना का त्याग करते हैं, मान-अपमान में ममान भाव रखते हैं। अब और चाहिये क्या ? जिमसे वे कुछ पाने की प्राशा रखते हैं, वह यदि उन्हें दस गालियाँ भी देता है तो उनकी प्राकृति पर न गेप का कोई चिह्न प्रकट होता है और न मन में ग्लानि होती है। न उन्हें मक्खी चूसने में घणा होती है और न रक्त चूसने में दया । मुन्दर रूप देखकर अपनी एक कौड़ी भी नहीं भूलते। कमगा से करुण स्वर मुनकर वे अपना एक पैसा भी किमी के यहाँ नहीं छोड़ते। तुच्छ से तुच्छ व्यक्ति के सामने हाथ फैलाने में लज्जित नहीं होते।""
वे और भी लिखते हैं :
"पक्के लोभी लक्ष्य-भ्रप्ट नहीं होते, कच्चे हो जाते हैं । किमी बस्तु को लेने के लिए कई प्रादमी खीचतान कर रहे हैं, उनमें से एक क्रोध में आकर वस्तु को नष्ट कर देता है, उसे पक्का लोभी नहीं कह सकते; क्योंकि क्रोध ने उसके लोभ को दबा दिया, वह लक्ष्यभ्रष्ट हो गया।"
लालसा, लालच, तृप्पा, अभिलापा, चाह प्रादि लोभ के अनेक नाम है । प्रेम या प्रीति भी लोभ के ही नामान्तर हैं । जब लोभ किसी वस्तु के प्रति होता है तो उसे लोभ या लालच कहा जाता है, पर जव । चिन्तामरि, माग १, पृष्ठ ५८ २ वही, पृष्ठ ५६