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उत्तमशौच 0 ५६ आज की दुनियां में रुपये-पैसे के लोभ को ही लोभ माना जाता है। कोई विषय-कषाय में ही क्यों न खर्चे, पर दिल खोलकर खर्च करने वालों को दरियादिल एवं कम खर्च करने वालों को लोभी कहा जाता है।
किसी ने आपको चाय-नाश्ता करा दिया, सिनेमा दिखा दिया तो वह आपकी दृष्टि में निर्लोभी हो गया और यदि उसके भी चायनाश्ते का बिल आपको चुकाना पड़ा या सिनेमा के टिकट पापको खरीदने पड़े तो आप कहने लगेंगे- हाय राम! बड़े लोभी से पाला पड़ा।
इसीप्रकार धर्मार्थ संस्था के लिए ही सही, आप चन्दा मांगने गये और किसी ने आपकी कल्पना से कम चन्दा दिया या न दिया तो लोभी; और यदि कल्पना से अधिक दे दिया तो निर्लोभी, चाहे उसने यश के लोभ में ही अधिक चन्दा क्यों न दिया हो। इसप्रकार यश के लोभियों को प्रायः निर्लोभी मान लिया जाता है ।
ऊपर से उदार दिखने वाला अन्दर से बहुत बड़ा लोभी भी हो सकता है। इस बात की ओर हमाग ध्यान ही नहीं जाता।
अरे भाई ! पैसे का ही लोभ सब-कुछ नहीं है, लोभ तो कई प्रकार का होता है। यश का लोभ, रूप का लोभ, नाम का लोभ, काम का लोभ आदि । __ वस्तुतः तो पाँचों इन्द्रियों के विषयों की एवं मानादि कषायों की पूत्ति का लोभ ही लोभ है। पैसे का लोभ तो कृत्रिम लोभ है। यह तो मनुष्य भव की नयी कमाई है। लोभ तो चारों गतियों में होता है, किन्तु रुपये-पैसे का व्यवहार तो चारों गतियों में नहीं है। यदि रुपये-पैसे के लोभ को ही लोभ मानें तो अन्य गतियों में लोभ की सत्ता सम्भव न होगी, जबकि कषायों की बाहल्यता का वर्णन करते हुए प्राचार्यों ने लोभ को अधिकता देवगति में बताई है।
नारकियों में क्रोध, मनुष्यों में मान, तियंचों में माया और देवों में लोभ की प्रधानता होती है । देवगति में पैसे का व्यवहार नहीं है, अतः लोभ को पैसे की सीमा में कसे बांधा जा सकता है ?
पैसा तो विनिमय का एक कृत्रिम साधन है। रुपये-पैसे में ऐसा कुछ नहीं है कि जो जीव को लुभाए । लोग न उसके रूप पर लुभाते हैं, न रस पर।