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५८ 0 धर्म के बरालमरण
इस लोभकषाय से पीड़ित हुअा व्यक्ति अपने मालिक, गुरु, बन्धु, वृद्ध, स्त्री, वालक; तथा क्षीण, दुर्बल, अनाथ, दीनादि को भी निःशंकता से मार कर धन को ग्रहण करता है।
नरक ले जाने वाले जो-जो दोष, सिद्धान्तशास्त्रों में कहे गये हैं वे सब लोभ से प्रकट होते हैं।
पैसे का लोभी व्यक्ति सदा जोड़ने में ही लगा रहता है, भोगने का उसे समय ही नहीं मिलता। पशुओं का लोभ पेट भरने तक ही सीमित रहता है, पेट भर जाने पर वह कुछ समय को ही सही सन्तुष्ट हो जाता है; पर मानव की समस्या मात्र पेट भरने तक सीमित नहीं रही, वह पेटी भरने के चक्कर में सदा ही अमन्तुष्ट बना रहता है।
दिन रात हाय पैसा ! हाय पैसा !! उसे पैसे के अतिरिक्त कुछ दिखाई ही नहीं देता। वह यह नहीं ममझता कि अनेक प्रयत्न करने पर भी पुण्योदय के बिना धनादि अनुकूल मंयोगों को प्राप्त नहीं किया जा सकता, क्योंकि धनादि संयोगों की प्राप्ति पूर्वकृत पुण्य का फल है।
इसी बात की ओर ध्यान आकर्षित करने हेतु 'भगवती आराधना' में लिखा है :
लोभे कए वि अत्थो ण होइ पुरिसस्स अपडिभोगस्स। प्रकएवि हवदि लोभे अत्यो पडिभोगवंतस्स ।।१४३६।।
लोभ करने पर भी पुण्यरहित मनुष्य को द्रव्य मिलता नहीं है और न करने पर भी पुण्यवान को धन की प्राप्ति होती है।
प्रतः धन की प्राप्ति में लोभ-प्रासक्ति कारण नहीं, परन्तु पुण्य ही कारण है । ऐसा विचार कर लोभ का त्याग करना चाहिए ।
इसके पश्चात् उच्छिाट धन के लोभ के त्याग की प्रेरणा देते हुए लिखा है :
सव्वे वि जा अत्था परिगहिदा ते अणंत खुत्तो मे । प्रत्येसु इत्थ कोमज्झ विभो गहिदिनडेसु ॥१४३७।। इह य परत्तए लोए दोसे बहुए य आवह लोभो। इदि अप्पणो गणित्ता गिज्जेदव्वो हदि लोभी ।।१४३८॥
इस लोक में अनंतबार धन प्राप्त किया है, अतः अनंतवार ग्रहणकर त्यागे हुए इस धन के विषय में आश्चर्यचकित होना व्यर्थ है।
इस लोक व परलोक में यह लोभ अनेक दोष उत्पन्न करता हैऐसा जानकर लोभ पर विजय प्राप्त करना चाहिए।