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३६ 0 धर्म के दशलक्षण समझता है और न मीटर को ही, या फिर वह दूध और कपड़ा दोनों से अपरिचित है अन्यथा लीटरों में कपड़ा और मीटरों में दूध क्यों मांगता?
प्रात्मा के धर्म मार्दवादि और अधर्म मानादि को भी परपदार्थों से क्यों नापना ? धनादि परपदार्थों के संयोग मात्र से मानकषाय एवं उनके प्रभाव से मार्दवधर्म को मानने वाले न तो मानकषाय को ही समझते हैं और न मार्दवधर्म को ही। भले ही वे मानकषाय करते हों, पर उसका सही स्वरूप नहीं समझते। ऐसा भी सम्भव है कि धनादि का संयोग हो, पर धनमद न हो । अज्ञानी को धनादि का संयोग न होने पर भी नियम से धनादिमद होते हैं, क्योंकि जब तक सम्यग्दर्शन नहीं हुआ, आत्मा का अनुभव नहीं हुआ, तब तक धनादिमदों की उपस्थिति अनिवार्य है, भले ही वह बाह्य में अभिमान करता दिखाई न भी दे ।
मान और दीनता दोनों ही मार्दवधर्म के विरोधी भाव हैं। अतः दोनों ही मद (मान) के ही रूप हैं। जब मार्दव के अभाव को मान या मान के प्रभाव को मार्दव कहा जाता है- कम से कम तब निश्चितरूप से 'मान' शब्द में दीनता को भी शामिल मानना होगा, अन्यथा मार्दवधर्म वालों के दीनता का प्रभाव मानना संभव न होगा।
'ज्ञानी के ज्ञानमद नहीं होता और अज्ञानी के होता है।' इससे भी एक बात प्रकट होती है कि मान जिसका होता है उसकी सत्ता हो ही, यह आवश्यक नहीं। अतः धनमद होने के लिए धन की उपस्थिति आवश्यक नहीं।
धनादि का व्यवहार तो मात्र मनुष्यगति में ही पाया जाता है और मान चारों ही गतियों में पाया जाता है । कुल-जाति का व्यवहार भी मनूष्य-व्यवहार है। मान को मात्र मनुष्य-व्यवहार तक सीमित रख कर नहीं, विस्तृत सीमा में समझना होगा।
इसमें मूल बात ध्यान देने की यह है कि अज्ञानी ने अपना नाप अपने से नहीं किया वरन् धनादि के संयोग से किया। धन के संयोग से अपने को बड़ा माना और उसकी कमी या प्रभाव से अपने को छोटा माना। पर के कारण चाहे अपने को छोटा माने या बड़ादोनों ही मान हैं। इस कारण मानी तो मानी है ही, दीन भी मानी ही है।