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उत्तममार्दव 0 ३५ क्योंकि यदि धनमद धनवालों को ही होगा, बलमद बलवानों को ही होगा, रूपमद रूपवान को ही होगा तो फिर ज्ञानमद ज्ञानवान को ही होना चाहिए; जबकि ज्ञानमद ज्ञानी को नहीं, अज्ञानी को होता है । ज्ञानमद ही क्यों, आठों ही मद अज्ञानी को ही होते हैं, ज्ञानी को नहीं। ___जब ज्ञानमद अज्ञानी को हो सकता है तो धनमद निर्धन को क्यों नहीं, रूपमद कुरूप को क्यों नहीं ? इसीप्रकार बलमद निर्बल को क्यों नहीं ? आदि।
दूसरी बात यह है कि मान लो एक व्यक्ति ऐसा है जिसके पास न तो धन है, न बल है; न ही वह रूपवान है, न ही ऐश्वर्यवान है, न ही ज्ञानी एवं तपस्वी ही है; उच्च जाति एवं उच्च कुलवाला भी नहीं है तो उसके तो कोई मद होगा ही नहीं, उसे किसी भी प्रकार का मान होगा नहीं; उसे तो फिर मानकषाय के अभाव में मार्दव धर्म का धनी मानना होगा। शायद यह आपको भी स्वीकार न होगा? क्योंकि इस स्थिति में जो धर्म का नाम भी नहीं जानते ऐसे दीन-हीन, कुरूप, निर्बल, नीच जाति कुल वाले अज्ञानी जन के भी मार्दवधर्म की उपस्थिति माननी होगी, जो कि सम्भव नहीं है।
वस्तुतः स्थिति यह है कि धन के संयोग से अपने को बड़ा माने वह मानी । मात्र धन के होने से कोई मानी नहीं हो जाता, पर उसके होने से अपने को बड़ा मानकर मान करने से मानी होता है। इसी प्रकार धन के न होने से या कम होने से अपने को छोटा माने वह दीन है, मात्र धन की कमी या प्रभाव से कोई दीन नहीं हो जाताहो जावे तो मनिराजों को दीन मानना होगा, क्योंकि उनके पास तो धन होता ही नहीं, वे रखते ही नहीं। वे तो मार्दवधर्म के धनी हैं, वे दीन कैसे हो सकते हैं ? धन के प्रभाव से अपने को छोटा अनुभव कर दीनता लावे तो दीन होता है ।
धनादि के अभाव में भी धनादिमदों की उपस्थिति मानने में हमें परेशानी इसलिए होती है कि हम धनादि के संयोग से मान की उत्पत्ति मान लेते हैं। हम मान का नाप पर से करते हैं। मानकषाय और मार्दवधर्म दोनों ही आत्मा की पर्यायें हैं, अतः उनका नाप अपने से ही होना चाहिए, पर से नहीं।
दूध लीटर से नापा जाता है और कपड़ा मीटर से । यदि कोई कहे दो लीटर कपड़ा दे देना या दो मीटर दूध देना तो दुनियाँ उसे मूर्ख ही समझेगी, क्योंकि ऐसा बोलने वाला न तो लीटर को ही