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३४० धर्म के बसलक्षारण
यदि मार्दवधर्म के प्रभाव का नाम मानकषाय और मान कषाय के प्रभाव का नाम मार्दवधर्म है तो फिर दीनता को मान मानना ही होगा, क्योंकि यदि उसे मान न माना जायगा तो मान के प्रभाव में दीनता मार्दव हो जावेगी।
क्यों ? कैसे? देखिये-मान पाठ चीजों के आश्रय से होता है :
ज्ञानं पूजां कुलं जाति बलमृद्धि तपो वपुः ।
अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुर्गतस्मयाः।।' ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप, और शरीर-इन पाठ वस्तुओं के प्राश्रय से जो मान किया जाता है, उसे मानरहित भगवान मान कहते हैं।
तात्पर्य यह है कि क्रोध या मान कोई भी विकार हवा में नहीं होता, किसी न किसी के आश्रय से होता है। प्राश्रय का अर्थ है लक्ष्य । अर्थात् जब हमें क्रोध प्राता है तो वह किसी न किसी पर, किसी न किसी के लक्ष्य से होता है। ऐसा नहीं कि क्रोध आने पर पूछा जाय कि किस पर आ रहा है तो कहे किसी पर नहीं, वैसे ही पा रहा है-ऐसा नहीं होता। क्रोध किसी न किसी पर ही प्राता है। उसीप्रकार मान भी किसी न किसी वस्तु के आश्रय से ही होता है। जिन वस्तुओं के प्राश्रय से मान होता है, उन्हें आठ भागों में वर्गीकृत किया गया है। ___'मैं ज्ञानी हूँ' इस विकल्प के आश्रय से होने वाले मान को ज्ञानमद कहते हैं। इसीप्रकार कुल, जाति, धन, बल प्रादि के प्राश्रय से कुलमद, जातिमद, धनमद, बलमद आदि होते हैं। ___अधिकांश लोगों की मान्यता ऐसी पाई जाती है कि धनमद धनवालों को ही होता है, गरीबों को नहीं। उनका कहना है कि गरीबों के पास धन है ही नहीं, तो उन्हें धनमद कैसे हो सकता है ? इसीप्रकार रूपमद रूपवालों को होगा, कुरूपों को नहीं। बलमद बलवानों को होगा, निर्बलों को नहीं। इसीप्रकार अन्य भी समझ लेना चाहिये।
उनकी यह बात ऊपर से कुछ जंचती भी है, पर गम्भीरता से विचार करने पर प्रतीत होता है कि यह बात सुसंगत नहीं है । 'प्राचार्य समन्तभद्र : रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक २५