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उत्तममार्दव - ३३ जिस पर हमें क्रोध पाता है हम उसे नष्ट कर डालना चाहते हैं, पूर्णतः बरबाद कर देना चाहते है; पर जिसके लक्ष्य से मान होता है उसे नष्ट नहीं करना चाहते वरन उसे कायम रखना चाहते हैं, पर अपने से कुछ छोटेरूप में।
क्रोधी को विरोधी को सत्ता ही स्वीकृत नहीं होती, जबकि मानी को भीड़ चाहिए, नीचे बैठने वाले चाहिए, जिनसे वह कुछ ऊँचा दिखे। मानी को मान की पुष्टि के लिए एक सभा चाहिये जिसमें सव नीचे बैठे हों और वह सबसे कुछ ऊँचा। अतः मानी दूसरों को भी रखना चाहता है पर अपने से कुछ नीचे, क्योंकि मान की प्रकृति ऊँचा दिखने की है और ऊँचाई एक सापेक्ष स्थिति है। कोई नीचा हो तो ऊंचे का व्यवहार बनता है । ऊँचाई के लिए नीचाई और नीचाई के लिए ऊंचाई चाहिये।
क्रोधी क्रोध के निमित्त को हटाना चाहता है, पर मानी मान के निमित्तों को रखना चाहता है । क्रोधी कहता है- गोली से उड़ा दो, मार दो; पर मानी कहता है - नही; मारो मत, पर जरा दवाकर रखो।
जागीरदार लोग गांव में किमी को पांव में सोना नहीं पहिनने देते थे, उनके मकान से ऊँचा मकान नहीं बनाने देते थे, क्योंकि उनके मकान से दूसरे का मकान बड़ा हो जाए तो उनका मान खण्डित हो जाता था।
क्रोधी वियोग चाहता है पर मानी संयोग । यदि मुझे सभा में क्रोध आ जाय तो मैं उठकर भाग जाऊँगा और यदि वश चलेगा तो मवको भगा दंगा। पर यदि मान आवे तो भागंगा नहीं और सबको भगाऊंगा भी नहीं, पर नीचे विठाऊँगा और मैं स्वयं ऊपर बैठना चाहंगा । मान की प्रकृति भगाने की नहीं, दबाकर रखने की नीचे रखने की है। जबकि क्रोध की प्रकृति खत्म करने की है।
यही कारण है कि क्रोध नम्बर एक की कषाय है और मान नम्बर दो की।
मान के अनेक रूप होते हैं। कुछ रूप तो ऐसे होते हैं जिन्हें बहुत से लोग मान मानते ही नहीं। दीनता मान का एक ऐसा ही रूप है जिसे लोग मान नहीं मानना चाहते । दीन को मानी-अभिमानी मानने को उनका दिल स्वीकार नहीं करता। वे कहते हैं दीन तो दीन है, वह मानी कैसे हो सकता है ?