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उत्तममार्दव - ३७ लौकिक दृष्टि से भले ही उसमें भेद हो, पर आध्यात्मिक दृष्टि से विशेषकर मार्दवधर्म के सन्दर्भ में अभिमान और दीनता दोनों मान के ही रूप हैं, उनमें कोई विशेष भेद नहीं। मार्दवधर्म दोनों के ही अभाव में उत्पन्न होने वाली स्थिति है।
अभिमान और दीनता दोनों में अकड़ है; मार्दवधर्म की कोमलता, सहजता दोनों में ही नहीं है। मानी पीछे को झुकता है, दीन आगे को; सीधे दोनों ही नहीं रहते । मानी ऐसे चलता है जैसे वह चौड़ा हो और बाजार सकड़ा एवं दीन ऐसे चलता है जैसे वह भारी बोझ से दबा जा रहा हो।
अतः यह एक निश्चित तथ्य है कि अभिमान और दीनता दोनों ही विकार हैं, आत्म-शान्ति को भंग करने वाले हैं और दोनों के प्रभाव का नाम ही मार्दवधर्म है ।
समानता पाने पर मान जाता है। मार्दवधर्म में समानता का तत्त्व विद्यमान है। 'मभी प्रात्माएँ समान हैं, कोई छोटा-बड़ा नहीं।' यह मान्यता महज ही मानकषाय को कम करती है, क्योंकि बड़प्पन के भाव का नाम ही तो मान है। 'मैं बड़ा और जगत छोटा' - यह भाव मानस्वरूप है। तथा 'मैं छोटा और जगत बड़ा' - यह भाव दीनतारूप है; यह भी मान का ही रूपान्तर है - जैसाकि पहले स्पष्ट किया जा चुका है।
पार्हतमत में 'मेग म्वरूप मिद्ध समान है' कहकर भगवान को भी ममानता के सिद्धान्त के भीतर ले लिया गया है। 'मैं किसी से बड़ा नहीं मानने वाले को मान एवं 'मैं किमी से छोटा नहीं मानने वाले को दीनता पाना सम्भव नहीं।
छोटे-बड़े का भाव मान है और ममानता का भाव मार्दव । सव समान हैं, फिर मान कैसा? पर हमने 'स' छोड़कर 'मान' रख लिया है। यदि मान हटाना है तो सबमें विद्यमान समानता को जानिए, मानिए; मान स्वयं भाग जाएगा और महज ही मार्दवधर्म प्रकट होगा।
जैसा हो वैसा अपने को मानने का नाम मान नहीं है, क्योंकि उसका नाम तो सत्यश्रद्धान, मत्यज्ञान है। बल्कि जैसा है नहीं वैसा माननेसे, तथा जैसा है नहीं वैमा मानकर अभिमान या दीनता करने से मान होता है, मार्दवधर्म खण्डित होता है। यदि मात्र अपने को