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उत्तमममा 0 २९ उन्हें आत्मा के प्रति अनन्त क्रोध है, तभी तो उन्हें आत्मचचा नहीं सुहाती।
हमने पर को तो अनन्त बार क्षमा किया, पर प्राचार्यदेव कहते हैं कि हे भाई ! एक बार अपनी आत्मा को भी क्षमा करदे, उसकी ओर देख, उसकी भी सुध ले । अनादि से पर को परखने में ही अनन्त काल गमाया है। एक बार अपनी आत्मा को भी देख, जान, परख ; सहज ही उत्तमक्षमा तेरे घट में प्रकट हो जावेगी।
आत्मा का अनुभव ही उत्तमक्षमा की प्राप्ति का वास्तविक उपाय है। क्षमास्वभावी आत्मा का अनुभव करने पर, प्राश्रय करने पर ही पर्याय में उत्तमक्षमा प्रकट होती है।
आत्मानुभवी सम्यग्दृष्टि ज्ञानीजीव को उत्तमक्षमा प्रकट होती है, और आत्मानुभव की वृद्धि वालों को ही उत्तमक्षमा बढ़ती है, तथा आत्मा में ही अनन्तकाल को समा जाने वालों में उत्तमक्षमा पूर्णता को प्राप्त होती है।
अविरतसम्यग्दृष्टि, अणुवती, महाव्रती और अरहन्त भगवान में उत्तमक्षमा का परिमाणात्मक (Quantity) भेद है,गुणात्मक (Quality) भेद नही। उत्तमक्षमा दो प्रकार की नहीं होती, उसका कथन भले दो प्रकार किया जाय । उसको जीवन में उतारने के स्तर तो दो से भी अधिक हो सकते हैं। निश्चयक्षमा और व्यवहारक्षमा कथन-शैली के भेद हैं, उत्तमक्षमा के नहीं। इसी प्रकार अविरतसम्यग्दष्टि की क्षमा, प्रणव्रती की क्षमा, महाव्रती की क्षमा, अरहन्त की क्षमा-ये सब क्षमा को जीवन में उतारने के स्तर के भेद हैं, उत्तमक्षमा के नहीं; वह तो एक अभेद है।
उत्तमक्षमा तो एक अकषायभावरूप है, वीतरागभावस्वरूप है, शुद्धभावरूप है। वह कषायरूप नहीं, गगभावस्वरूप नहीं, शुभाशुभ भावरूप नहीं, बल्कि इनके अभावरूप है।
क्षमास्वभावी आत्मा के आश्रय से समस्त प्राणियों को उत्तम क्षमाधर्म प्रकट हो, और सभी प्रतीन्द्रिय ज्ञानानन्दस्वभावी प्रात्मा का अनुभव कर पूर्ण सुखी हों, इसी पवित्र भावना के साथ विराम लेता हूँ।